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________________ [ चौदह ] ४. O ३.१. प्रमेयनिरूपणगत विशेषताएँ मालवणिया जी- प्ररूपित विषयप्रतिपादनगत विशेषताएँ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ ३.२. प्रमाण- निरूपणगत विशेषताएँ ३.३. नय--निरूपणगत विशेषताएँ O निरसन क - विषयवैविध्यादि अर्वाचीनता के लक्षण नहीं : इसके हेतु ख- विकासवादी -मान्य लक्षणानुसार तत्त्वार्थसूत्र में विकास भी है, विस्तार भी Jain Education International समस्त दार्शनिक तत्त्वों का अधिगम गुरुपरम्परा से पञ्चम प्रकरण - - डॉ० सागरमल जी के गुणस्थान- विकासवाद एवं सप्तभंगी - विकासवाद १. गुणस्थान - विकासवाद २. गुणस्थान - विकासवाद का निरसन : तत्त्वार्थसूत्र में सम्पूर्ण गुणस्थान- सिद्धान्त का प्रकाशन २.१. गुणश्रेणिनिर्जरास्थान गुणस्थान ही हैं २.१.१. अनन्तवियोजक का अर्थ २.१.२. अनन्तवियोजक - असंयतसम्यग्दृष्टि संयत से अधिक निर्जरायोग्य कैसे ? २.१.३ गुणश्रेणिनिर्जरा का काल २. २. गुणस्थानसिद्धान्त से अनभिज्ञतावश स्वकल्पित असंगत व्याख्याएँ एवं निष्कर्ष २.३. गुणश्रेणिनिर्जरा- - स्थानक्रम में आध्यात्मिक विकासक्रम घटित नहीं होता O आध्यात्मिक विकास के कल्पित क्रम का निरसन २.४. 'सम्यग्दृष्टि' आदि में गुणस्थान का लक्षण विद्यमान २.५. सम्यग्दृष्टित्व आदि संवरादि के भी हेतु २.६. उपशमक-क्षपक श्रेणियों का उल्लेख २.७. समवायांग का प्रमाण For Personal & Private Use Only ३५३ ३५३ ३५६ ३५८ ३५९ ३५९ ३६४ ३६८ ३६९ ३६९ ३७१ ३७१ ३७३ ३७८ ३७९ ३८१ ३८५ ३८६ ३८९ ३९२ ३९२ ३९४ www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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