SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०६ तथा दाता समस्त संघ को भोजन कराकर वस्त्रादि से उसकी पूजा करे। यह उल्लेख केवल भट्टारक-पदस्थापना-विधि में है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य-उपाध्याय की पदस्थापनाविधि और भट्टारक की पदस्थापनाविधि में बहुत अन्तर है। आचार्य और उपाध्याय के पद पर स्थापना निर्ग्रन्थ की निर्ग्रन्थपद पर स्थापना है, जब कि भट्टारकपद पर स्थापना निर्ग्रन्थ की सग्रन्थपद पर स्थापना है। आगम में ऐसे निर्ग्रन्थ से सग्रन्थ हो जानेवाले भट्टारकपरमेष्ठी की मान्यता नहीं है। अतः उपर्युक्त भट्टारक-पदस्थापनादीक्षा-विधि आगममान्य नहीं है। ४. कथित भट्टारक-पदस्थापना-विधि की रचना कब की गई, इसका कोई संकेत उसमें नहीं है। फिर भी उसमें यह उल्लेख किया गया है कि "श्रीमूलसंघ के नन्दिसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण और कुन्दकुन्दान्वय में अमुक के पट्ट पर अमुक नामवाले तुम भट्टारक हुए।" इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि उक्त विधि बारहवीं शताब्दी ई० के पश्चात् किसी समय रची गई है, क्योंकि कुन्दकुन्दान्वय की उत्पत्ति ईसोत्तर प्रथम शती में, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण की १०वीं शती में और नन्दीसंघ की ७वीं शती (भट्ट अकलंकदेव के दिवंगत होने) के बाद हुई थी। (देखिये इसी अध्याय का प्रकरण ३/ शीर्षक १)। तथा कुन्दकुन्दान्वय के साथ नन्दिसंघ का प्रथम उल्लेख बूढ़ी चंदेरी (गुना, म.प्र.) में उपलब्ध १२वीं शताब्दी के एक लेख में हुआ है। तत्पश्चात् विजयनगर के १३८६ ई० के शिलालेख में मिलता है, यह पूर्व (इसी अध्याय के प्र.३ / शी.१) में दर्शाया जा चुका है। अतः वह दीक्षाविधि आगमोक्त नहीं, अपितु १२ वीं शताब्दी ई० के आरम्भ में भट्टारकप्रथा की शुरुआत होने के बाद भट्टारकसम्प्रदाय द्वारा रचित है। इसलिए उसे आगमोक्त मानकर किसी मुनि को भट्टारकपद पर अभिषिक्त करना आगमसम्मत नहीं है। तथा आगमबाह्य भट्टारकपरम्परा के अनुसार भी कोई भी मुनि मुनिवेश में भट्टारकपट्ट पर स्थित नहीं रहा। मुनियों में वस्त्रधारण कर भट्टारक बनने की प्रथा १२वीं शताब्दी ई० में आरंभ हो गयी थी। तथा पण्डित हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री के ये शब्द पूर्व में उद्धृत किये गये हैं कि एक ऐतिहासिक पत्र के अनुसार भट्टारक सकलकीर्ति (१५ वीं शताब्दी ई०) २२ वर्ष तक मुनिवेश में रहे, पश्चात् वस्त्र धारण कर भट्टारक बन गये और प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न कराने लगे। तात्पर्य यह है कि मुनि अथवा गृहस्थ दिगम्बरवेश में भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त तो होते थे, किन्तु उस वेश में वे पट्ट पर स्थित नहीं रहते थे, अभिषेक के पश्चात् दिगम्बरमुनिवेश त्याग कर अजिनोक्त-सवस्त्रसाधु-वेश धारण कर लेते थे। अतः किसी मुनि को भट्टारकपट्ट पर अभिषिक्त कर उसे मुनिवेश में ही पट्ट पर आसीन रहने देना भट्टारकसम्प्रदाय द्वारा रचित पूर्वोद्धृत पदस्थापनाविधि के भी विरुद्ध है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy