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________________ अ०८/प्र०६ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १२३ इस प्रकार भट्टारक-पदस्थापना-विधि में उल्लिखित तथ्यों से ही सिद्ध होता है कि वह विधि आगमोक्त नहीं है, अपितु आगमबाह्य भट्टारकसम्प्रदाय द्वारा रचित है। तथा आगमप्रमाण सिद्ध करते हैं कि किसी मन्दिर, मठ या तीर्थ में नियतवास कर उनके प्रबन्ध और संरक्षण का कार्य मुनियों का धर्म नहीं है, अपितु मुनिधर्म के विरुद्ध है। अतः यह कार्य करनेवाला कोई मुनि, न तो मुनि कहला सकता है, न भट्टारक, न परमेष्ठी। इस कारण भी उक्त दीक्षाविधि आगमोक्त सिद्ध नहीं होती। अतः उसे आगमोक्त मानकर किसी मुनि को तीर्थादि के प्रबन्ध और संरक्षण का कार्य करनेवाले भट्टारकपट्ट पर प्रतिष्ठित करना उसे मुनिपद से अध:पतित करना है, जो जिनशासन के प्रति गम्भीर अपराध है। अतः भट्टारक बनाना ही हो, तो किसी गृहस्थ को ही बनाया जाय। इस गृहस्थोचित लौकिक कार्य के लिए अलौकिक अवस्था में पहुँचे किन्हीं मुनिश्री का शीलभंग न किया जाय, उन्हें मुनिपद से गृहस्थपद पर न उतारा जाय, उन्हें मोक्षमार्ग से खींचकर संसारमार्ग में न घसीटा जाय, उनकी वीतरागता का अपहरण न किया जाय। उन पर मन्दिर-मठ-तीर्थादि के प्रबन्ध का स्वामित्व थोपकर, उन्हें अपरिग्रह-महाव्रत से वंचित न किया जाय, मन्दिर-मठ-तीर्थादि के संरक्षण की चिन्ता में फँसाकर उन्हें आर्त्त-रौद्र-ध्यान की भट्टी में न झौंका जाय, उन्हें गुरु से लघु और पूज्य से अपूज्य न बनाया जाय, उनकी पवित्र आत्मा पर अपवित्रता की कीचड़ न लपेटी जाय और उन्हें जिनशासन के नायक से जिनशासन का खलनायक न बनाया जाय। इसी प्रकार भट्टारक बनाने के लिए किसी गृहस्थ को पहले मुनिदीक्षा देकर, बाद में वस्त्र पहनाकर एवं पिच्छी-कमण्डलु देकर मुनिपद के साथ खेल न किया जाय। पहले से ही वस्त्रधारी किसी योग्य ब्रह्मचारी गृहस्थ को सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कराकर पिच्छी-कमण्डलु के बिना भट्टारकपद पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे भट्टारकपद सम्माननीय भी रहेगा, तीर्थादि का प्रबन्ध भी भलीभाँति होगा तथा भट्टारकपद आगमानुकूल भी हो जायेगा। आगम और पिच्छीकमण्डलु के अनादर से बचने के लिए वर्तमान नग्न भट्टारक भी अपने मुनिलिंग का एवं सवस्त्र भट्टारक पिच्छी-कमण्डलु का त्याग करें अथवा भट्टारकपद का त्यागकर मुनिपद स्वीकार करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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