________________
१२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/ प्र०६ उसका सम्बन्ध व्यक्तिगत विद्वत्ता आदि गुणों से है, जो आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर और सामान्य साधु , इनमें से किसी में भी हो सकते हैं और उन सबको 'भट्टारक' उपाधि से विभूषित किया जा सकता है। इस उपाधि का न कोई पट्ट (गद्दी) होता है, न उसका कोई उत्तराधिकारी। यह एक साथ अनेकों को दी जा सकती है। वस्तुतः यह विद्वत्ता आदि गुणों की सूचक लौकिक उपाधि है, जो जैनेतर सम्प्रदायों में भी प्रचलित है। अतः इस उपाधि की अपेक्षा किसी को परमेष्ठी नहीं कहा जा सकता, न कहा गया है। परमेष्ठी नाम से तो णमोकारमंत्र में वर्णित पाँच अलौकिक आत्माएँ ही प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार 'भट्टारक' किसी संघोपकारी कर्तव्य को सम्पादित करने वाले मुनि की उपाधि नहीं है। अतः जब आगमानुसार प्रवर्तक, स्थविर एवं गणधर की पदस्थापना-विधि सम्पन्न नहीं होती, तब भट्टारक की पदस्थापनाविधि के सम्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
__ आगम में मन्दिर-मठ-तीर्थादि का प्रबन्ध, शास्त्र-भण्डार आदि की सुरक्षा तथा गृहस्थों के कर्मकाण्ड का सम्पादन, ये कार्य किसी भी मुनि के कर्तव्य नहीं बतलाये गये हैं, अतः इनकी अपेक्षा किसी भी मुनि को भट्टारक की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इस कारण भी उक्त भट्टारक पदस्थापना-विधि आगमोक्त सिद्ध नहीं होती।
३. उक्त विधि में यह नियम है कि मुनि के भट्टारकपद पर अभिषिक्त होने के बाद समस्त श्रावक अपने-अपने घर से महामहोत्सवपूर्वक (गाजे-बाजे, नृत्य-गान आदि के साथ) विभिन्न प्रकार की भेंट (वर्धापन)११७ लाकर पट्टाभिषिक्त भट्टारक का अभिनन्दन करें। यह भेंट किस प्रकार की होती थी, इसका बोध संवत् १८८० में जयपुर में सम्पन्न भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति की पूर्ववर्णित दीक्षाविधि (अ.८ / प्र.४ / शी. ४.१) से हो जाता है। वह भेंट पछेवड़ी (लुंगी), दुपट्टा, शाल आदि के रूप में होती थी, जिसे स्वीकार कर भट्टारक बननेवाला मुनि वस्त्रधारी हो जाता था। उक्त संस्कृत भट्टारक-पदस्थापना-विधि में यह नियम भी है कि पट्टाभिषिक्त भट्टारक मुनि को वस्त्रादि की भेंट दिये जाने के बाद दाता सर्वसंघ को भोजन कराकर तथा वस्त्रादि देकर संघ की पूजा करे। ये नियम मुख्यरूप से पट्टाभिषिक्त भट्टारक की वस्त्रादि से पूजा किये जाने को दृष्टि में रखकर बनाये गये हैं, क्योंकि वस्त्रदान के पात्र क्षुल्लक, एलक और आर्यिका भी होते हैं, वे आचार्य और उपाध्याय की पदस्थापना-विधि के समय भी उपस्थित रहते हैं, किन्तु इन विधियों में अभिषिक्त आचार्य और उपाध्याय को भेंट लाकर देने और भोजन तथा वस्त्रादि के दान से सर्वसंघ की पूजा करने का नियम नहीं है। प्रमाण के लिए उक्त विधियाँ उद्धृत की जा रही हैं
११७. Congratulatory gift (एम. मोनियर विलिअम्स संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी)।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org