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________________ अ०८/प्र०६ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /११९ १. विधि में भट्टारक को लघु आचार्य, धर्माचार्याधिपति और भट्टारक-परमेष्ठी की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है, और कहा गया है कि जो मुनि भट्टारकपद के योग्य हो, उसे ही इस पद पर प्रतिष्ठित किया जाय। इससे सूचित किया गया है कि भट्टारकपद साधारण मुनिपद से अधिक योग्यतावाला होने से ऊँचा है, जैसे आचार्य और उपाध्याय के पद। इसीलिए यह विधान किया गया है कि भट्टारकपद पर अभिषिक्त होने के बाद समारोह में उपस्थित सभी मुनि भट्टारक-परमेष्ठी को प्रणाम करें। समस्त श्रावक भी उन्हें गुरु मानकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करें। तथा भट्टारकपरमेष्ठी भी श्रावकों को आशीष दें। किन्तु जिनागम में परमेष्ठी पाँच ही बतलाये गये हैं : अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। इनके अतिरिक्त भट्टारक नाम के छठवें परमेष्ठी का उल्लेख आगम में कहीं भी नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि उपर्युक्त भट्टारक-पद-स्थापनाविधि आगमोक्त नहीं है। जब भट्टारक नाम के परमेष्ठी का अस्तित्व ही आगमोक्त नहीं है, तब उसकी स्थापना-विधि को आगमोक्त मानना आकाशकुसुम को सुगन्धयुक्त मानने के समान है। २. यद्यपि आगम में मुनियों के आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त प्रवर्तक, स्थविर और गणधर, ये तीन भेद और बतलाये गये हैं, तथापि इन्हें आचार्य और उपाध्याय के समान स्वतन्त्ररूप से परमेष्ठी नहीं कहा गया है, अपितु ये साधुपरमेष्ठी में ही अन्तर्भूत हैं। तथा आचार्य आदि उपाधियाँ मुनि-संघोपकारक कर्त्तव्यभेद से प्रवर्तित हुई हैं। शिष्यों को आचार ग्रहण करानेवाले मुनि आचार्य कहलाते हैं, उन्हें धर्म का उपदेश देने वाले साधु उपाध्याय नाम से जाने जाते हैं, चर्या आदि के द्वारा संघ का प्रवर्तन करनेवाले मुनि की प्रवर्तक संज्ञा है, मर्यादोपदेशक अथवा संघ-व्यवस्थापक मुनि को स्थविर उपाधि दी गई है तथा गण अर्थात् मुनिसंघ के परिरक्षक साधु गणधर शब्द से अभिहित होते हैं। इन पाँच कर्त्तव्यों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा मुनिसंघोपकारक कर्त्तव्य आगम में वर्णित नहीं है, जिसका सम्पादन करनेवाले मुनि को भट्टारक उपाधि दी जाती। इसीलिए मूलाचार में उपर्युक्त पाँच को ही संघ या गुरुकुल का आधार बतलाया गया है।१६ हाँ, इन्द्रनन्दी ने 'नीतिसार' में सर्वशास्त्रकलाभिज्ञ, नानागच्छाभिवर्धक, महातपस्वी एवं प्रभावशाली मुनि को अवश्य भट्टारक कहा है, किन्तु ११६. तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच आधारा। आइरियउवज्झाया पवत्तथेरा गणधरा य॥ १५५ ॥ सिस्साणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसो य संघवट्टवओ।। मज्जादुवदेसो वि य गणपरिरक्खो मुणेयव्वो॥ १५६॥ मूलाचार। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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