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________________ ११८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०६ के योग्य मुनि को पूर्व की ओर मुख करके बैठाला जाय। फिर "भट्टारकपद-प्रतिष्ठापनक्रिया में ---" इत्यादि बोलकर सिद्ध, श्रुत और आचार्य की भक्ति पढ़ी जाय। उसके बाद पण्डिताचार्य "ऊँ हूँ अत्यन्त सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्ध से युक्त तीर्थजल से भरे हुए १०८ कलशों के जल से चरणों का अभिषेक करता हूँ , स्वाहा" यह पढ़कर १०८ कलशों के जल से चरणों का अभिषेक करे। "उसके बाद "इस युग के ---" इत्यादि भट्टारकस्तवन पढ़ते हुए सब ओर से चरणों का स्पर्श कर गुणों का आरोपण करे। तत्पश्चात् श्रीगुरु उन्हें भट्टारकपद के योग्य परम्परागत सूरिमन्त्र प्रदान करें। अथवा उस पद के योग्य मुनि का अभाव होने पर श्रीगुरु भट्टारक अपनी आयु के अन्त में उस पद के योग्य सूरिमंत्र पत्र में लिखकर उस पत्र पर मदनादि द्रव्यों की वर्षा कर मुक्त हो जाते हैं। तदनन्तर स्थापनिका के लिए अधिकृत पुरुष वह पत्र भट्टारकपद-योग्य मुनि को प्रदान करे। "अब आवाहनादि-विधि का वर्णन किया जाता है। ऊँ हूँ णमो आयरियाणं, हे धर्माचार्याधिपते! परमभट्टारक-परमेष्ठिन्! यहाँ आइये, यहाँ आइये, संवौषट्। ऊँ हूँ णमो आयरियाणं, धर्माचार्याधिपते! परमभट्टारक-परमेष्ठिन् ! यहाँ विराजिए , यहाँ विराजिए, ठः ठः। ॐ हूँ णमो आयरियाणं, हे धर्माचार्याधिपते! परमभट्टारक-परमेष्ठिन्! यहाँ पास में स्थित होइये, पास में स्थित होइये। इस प्रकार आवाहनादि करके (पण्डिताचार्य) "ऊँ हँ णमो आयरियाणं, धर्माचार्याधिपति, समस्त श्रुतसागर के पार को प्राप्त परमभट्टारक को नमस्कार" (ऐसा कहे)। फिर 'ॐ आः' यह उच्चारण करते हुए कपूर और चन्दन से चरणों पर तिलक करे। "तत्पश्चात् शान्ति-भक्ति करके, गुर्वावली पढ़कर "श्री मूलसंघ के नन्दिसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण एवं कुन्दकुन्दान्वय में अमुक के पट्ट पर अमुक नाम वाले तुम भट्टारक हुए" यह कहकर (पण्डिताचार्य) समाधिभक्ति पढ़े। उसके बाद गुरुभक्ति करके समस्त मुनि उन्हें (भट्टारक को) प्रणाम करें। फिर सभी श्रावक आठ प्रकार की इष्टियाँ तथा गुरुभक्ति करके उन्हें प्रणाम करें। तब वे भट्टारक भी दाता (दीक्षाविधि के आयोजक) एवं समस्त श्रावकों को आशीष प्रदान करें। उसके बाद सभी श्रावक अपने-अपने घर से बड़े उत्सवपूर्वक भेंट लाकर भट्टारक जी का अभिनन्दन करें। दाता सर्वसंघ को भोजन कराकर वस्त्रादि से संघ की पूजा करे, याचकों और दीन-अनाथों को भी सन्तुष्ट करे। इस प्रकार भट्टारकपद-स्थापनाविधि समाप्त हुई।" इस विधि में वर्णित निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है कि यह आगमोक्त नहीं है Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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