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________________ षष्ठ प्रकरण भट्टारक-पदस्थापनविधि आगमोक्त नहीं यतः जैनपरम्परा में भट्टारकपद आगमोक्त नहीं है, अतः भट्टारकदीक्षाविधि भी आगमोक्त नहीं है। तथापि वर्तमानकालीन कुछ मुनियों और आर्यिकाओं ने मुनि के भट्टारक बनने को आगमसम्मत सिद्ध करने की कोशिश की है। इतना ही नहीं भट्टारकपद को मुनिपद से भी उच्च बतलाया है। सन् २००२ ई० में विविध दीक्षा-संस्कार विधि नामक ७७ पृष्ठीय पुस्तिका प्रकाशित की गयी है, जिसमें मुनिदीक्षाविधि तथा आचार्यपदस्थापना, उपाध्याय-पदस्थापना एवं भट्टारक-पदस्थापना की विधियों का वर्णन है। विधियाँ संस्कृत भाषा में हैं और पुस्तिका के प्राक्कथन में आर्यिका शीतलमति जी ने कहा है कि इन दीक्षाविधियों को दर्शानेवाला प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र आचार्य श्री आदिसागर (अंकलीकर) जी के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री सन्मतिसागर जी को दि० जैन अतिशय क्षेत्र बेड़िया (गुजरात) के शास्त्रभण्डार से प्राप्त हुआ था। वे आगे लिखती हैं-"इसकी विशेषता यह है कि इसमें भट्टारक-पदस्थापना के संस्कार भी लिखे हुए हैं। पूर्व में यह पद काफी चर्चा का विषय रहा है। इसलिये इस शास्त्र को पाकर आत्मा को बहुत सम्बल मिला। फलस्वरूप भट्टारक-निर्ग्रन्थपरम्परा को पुनः स्थापित करने के अभिप्राय से (सन् २००२ ई० में) मुनि श्री जयसागर जी में इस भट्टारकपद के संस्कार (आरोपित) किये गये।" (पृष्ठ १०)। इसी पुस्तिका के 'प्रकथन' लेखक डॉ. महेन्द्र कुमार जी जैन 'मनुज' ने लिखा है-"भारत पर मुगलशासनकाल में जैन आस्था के केन्द्र जिनमन्दिरों-मूर्तियों को भग्न किया गया तथा जैन वाङ्मय से सम्बद्ध ग्रन्थों को नष्ट किया गया, लूटा गया, जलाया गया, ऐसी भयावह परिस्थितियों में हमारे भट्टारकों ने ही लगभग एक सहस्राब्दी तक जैनवाङ्मय की येन केन प्रकारेण रक्षा की। इस हेतु हम उनके इस उपकार के ऋणी हैं। पूज्य भट्टारकों द्वारा संस्थापित, संरक्षित शास्त्रभण्डार अब भी हैं, किन्तु जहाँ से भट्टारकों की गद्दियाँ समाप्त हो गई हैं, वहाँ के शास्त्रभण्डारों की स्थिति दयनीय है। शास्त्र, विशेषकर ताडपत्रीय, नष्ट हो रहे हैं। उनकी सूचियाँ तक नहीं बन सकी हैं और उन्हें अनुपयोगी की श्रेणी में उन पुस्तकालयों में स्थान मिला हुआ है। यदि उत्तर भारत के पूर्व भट्टारक-केन्द्रों पर पुनः भट्टारकीय गद्दियाँ स्थापित हों, तो जिनवाणी संरक्षण के लिए यह महनीय उपक्रम होगा।" (पृष्ठ E)। उक्त महानुभाव के इस वक्तव्य से उनकी मुनिविरोधी विचारधारा का पता चलता है। वे चाहते हैं कि मोक्षसाधना के लिए लौकिक बन्धनों से छुटकारा पाने हेतु गृहत्याग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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