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११६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ६
कर देने वाले दिगम्बरमुनियों को किसी एक मन्दिर या तीर्थक्षेत्र पर नियतवास के बन्धन में बाँधकर अर्थात् उन्हें अनगार से सागार बनाकर उनसे वहाँ की चल-अचल सम्पत्ति और शास्त्र भण्डार के संरक्षण का कार्य कराया जाय। अर्थात् उन्हें मुनि से मुनीम या चौकीदार बना दिया जाय। किन्तु इस कार्य के लिए एक मुनि का इतना अध: पतन कराने की क्या आवश्यकता है? पिच्छी - कमण्डलु और जिनमुद्रा की इतनी अवमानना करने की क्या जरूरत है? यह कार्य तो एक प्रबन्धकुशल, समर्पित गृहस्थ या सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी भी आसानी से कर सकता है।
आर्यिका शीतलमति जी ने मुनि जयसागर जी का भट्टारक पट्टाभिषेक शास्त्रसम्मत माना है, क्योंकि कुछ पन्नों में, जिन्हें उन्होंने शास्त्र कहा है, उन्हें भट्टारक - पदस्थापनाविधि लिखी हुई मिली है। किन्तु उन्होंने यह नहीं बतलाया कि इस शास्त्र का कर्त्ता कौन है और यह कब लिखा गया है ? उक्त लघुपुस्तिका में उस ९ पृष्ठीय (पृष्ठ ६९ से ७७) हस्तलिखित शास्त्र की छाया - प्रति निबद्ध की गयी है, किन्तु उसमें न तो शास्त्रकर्त्ता का नाम है, न ही रचनाकाल का उल्लेख । इसलिए वह सन्देह को जन्म देती है। यदि इस तथ्य की उपेक्षा कर दी जाय, तो भी उक्त हस्तलिखित शास्त्र में दी गयी भट्टारक - पदस्थापना - विधि आगमोक्त सिद्ध नहीं होती। इसका निर्णय उक्त विधि के मूलपाठ पर दृष्टि डालने से हो जाता है।
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भट्टारक- पदस्थापना-विधि का मूलपाठ
"लघ्वाचार्यपदं सकलसंघाभिरुचितम् । ऐदंयुगीनश्रुतज्ञं जिनधर्मोद्धरणधीरं रत्नत्रय - भूषितं भट्टारकपदयोग्यं मुनिं दृष्ट्वा चतुर्विधसंघैः सह आलोच्य लग्नं गृहीत्वा सकलोपासकमुख्यः सङ्घाधिपः सर्वत्रामन्त्रणपत्रीं प्रेषयेत् ।
“ततो विचित्रशोभान्वितं मण्डपं वेदिकां सिंहासनं च कारयेत् । सर्वे उपासका चैत्यालये शान्तिकं गणधरवलयरत्नत्रयादिपूजां महोत्सवं च कुर्वन्ति । लग्नदिने शान्तिकं गणधरवलयार्चनं च विधाय जलयात्रा - महोत्सवं कृत्वा कलशान् १०८ आनीय सर्वौषधीः तन्मध्ये क्षिप्त्वा तान् स्वस्तिकोपरि स्थापयेत् ।
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'ततः सौभाग्यवती - स्त्रीभिः भूमौ चन्दनेन छटाः दापयित्वा मौक्तिकैः स्वस्तिकं कारयित्वा तस्योपरि सिंहासनं स्थाप्य तत्र पूर्वाभिमुखं तं भट्टारकपदयोग्यं मुनिमासयेत् । अथ 'भट्टारकपद-प्रतिष्ठापन - क्रियायाम्' इत्यादि उच्चार्य सिद्ध - श्रुताचार्य - भक्तिं पठेत् । ततो पण्डिताचार्यः 'ऊँ हूँ परमसुरभि - द्रव्यसन्दर्भ - परिमलगर्भ-तीर्थम्बु- सम्पूर्ण सुवर्णकलशाष्टोत्तरशत-तोयेन पादौ परिषेचयामीति स्वाहा' इति पठित्वा कलशाष्टोत्तरशत - तोयेन पादौ परिषेचयेत् ।
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