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________________ अ०८/प्र०५ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ११३ इसका फलितार्थ यह है कि स्त्रियों में चार प्रकार के शुक्लध्यान संभव नहीं हैं, जिससे इन ध्यानों के द्वारा होनेवाले कर्मों का क्षय भी उनमें असंभव है। इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, जो यापनीयमत का प्रमुख सिद्धान्त है। - ख- आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार-कर्मकाण्ड में यह भी कहा है कि अर्धनाराचसंहननवाला जीव अधिक से अधिक आरण-अच्युत स्वर्ग तक ही जा सकता है, उससे ऊपर नहीं सेवट्टेण य गम्मइ आदीदो चदुसु कप्पजुगलोत्ति। तत्तो दु जुगलजुगले खीलिय-णारायणद्धोत्ति॥ २९॥ इसका अभिप्राय यह है कि चूँकि कर्मभूमि की स्त्रियों में अर्धनाराचसंहनन ही उत्कृष्ट संहनन होता है अतः वे अधिक से अधिक सोलहवें स्वर्ग तक ही जा सकती हैं, उससे ऊपर नहीं। इससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि कर्मभूमि की स्त्रियों में केवल सोलहवें स्वर्ग तक का सुख प्राप्त करने योग्य तप करने की शक्ति होती है, मोक्षसुख प्राप्त करने योग्य तप करने की शक्ति नहीं। इस प्रकार भी आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने यापनीयों के प्रमुख सिद्धान्त 'स्त्रीमुक्ति' का निषेध किया है। ग-कोई मनुष्य द्रव्य (शरीर) से पुरुष और भाव से स्त्री या नपुंसक हो सकता है। कोई मनुष्य द्रव्य से स्त्री और भाव से पुरुष या नपुंसक हो सकता है। इसी प्रकार किसी मनुष्य का द्रव्य से नपुंसक और भाव से पुरुष या स्त्री होना संभव है। इसे वेदवैषम्य कहते हैं। यापनीयमत वेदवैषम्य को स्वीकार नहीं करता। (इसका विस्तार से विवेचन एकादश अध्याय में द्रष्टव्य है)। किन्तु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'गोम्मटसार-जीवकाण्ड' में वेदवैषम्य के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। यथा पुरुसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरुसित्थिसंढवो भावे। णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा॥ २७१॥ घ-गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि नेमिचन्द्रकृत ग्रन्थों का सारा विषय-विवेचन गुणस्थानसिद्धान्त पर आश्रित है, जबकि यापनीयसम्प्रदाय गुणस्थानसिद्धान्त को अमान्य करता है। (इसका भी विस्तृत निरूपण एकादश अध्याय में दर्शनीय है)। इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा रचित ग्रन्थों में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन होना इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि वे यापनीय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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