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________________ ११२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ५ से मिलनेवाले लेखों ( २०७, २०९ आदि) में क्राणूगण के रूप में उल्लेख देख ऐसा लगता है कि यापनीय कण्डूगण ही मूलसंघ द्वारा आत्मसात् कर लिया गया है।" इसके बाद वे पृष्ठ ५९ पर लिखते हैं- " क्राणूगण के सम्बन्ध में यापनीयसंघ के विवेचन में (पृष्ठ ३१ पर) हम सम्भावना प्रकट कर आये हैं कि क्राणूगण यापनीयों के कण्डूगण के नाम का शब्दानुकरण है । " (जै. शि. सं. / मा.च. / भा.३) । इससे स्पष्ट होता है कि डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी के मतानुसार यापनीयों में कण्डूगण ही था, क्राणूगण नहीं। उन्होंने केवल यह संभावना व्यक्त की है कि मूलसंघ ने 'कण्डूर्' शब्द का अनुकरण कर अपने संघ में क्राणूरगण की स्थापना की थी। पर यह उनकी संभावनामात्र है। यह भी संभव है कि 'कण्डूर्' और 'क्राणूर्' नाम के अलग-अलग स्थान हों और उनके नाम से यापनीयसंघ में कण्डूगण प्रचलित हुआ हो और मूलसंघ (निर्ग्रन्थसंघ) में क्राणूगण । ३. श्रवणबेलगोल में यापनीयसंघ का कभी अस्तित्वं ही नहीं रहा। वहाँ से तथा वहाँ के आस-पास से प्राप्त ५०० शिलालेखों में 'यापनीयसंघ' का नाम भी नहीं है । यापनीयसंघ के विषय में विशेष अनुसन्धान करनेवाले डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने अपने शोधलेख 'जैन सम्प्रदाय के यापनीयसंघ पर कुछ और प्रकाश' में लिखा है कि " श्रवणबेलगोल में यापनीयसंघ से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री का न मिलना इस बात का द्योतक है कि इस पीठ का विकास यापनीय साधुओं को छोड़कर अन्य साधुओं के सहयोग से हुआ है ।" ('अनेकान्त ' / महावीरनिर्वाण विशेषांक / सन् १९७ ५ / पृ० २५१) । यदि श्रवणबेलगोल के भट्टारकपीठ पर सर्वप्रथम आसीन होनेवाले आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती यापनीयसंघ के होते, तो वहाँ के शिलालेखों में उनके साथ 'यापनीयसंघ' शब्द का प्रयोग हुए बिना न रहता । ४. आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्त मिलते हैं। यथा क - तत्त्वार्थसूत्र (९/२७) में कहा गया है कि "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्"। अर्थात् शुक्लध्यान के लिए वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच और नाराच इन तीन उत्तम संहननों की आवश्यकता होती है। और आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसारकर्मकाण्ड में कहा है कि कर्मभूमि की स्त्रियों के अर्धनाराच, कीलित और सृपाटिका ये तीन हीन संहनन ही होते हैं, उत्तम संहनन नहीं होते Jain Education International अंतिम-तिग-संघडणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं । आदिम-तिग-संघडणं णत्थित्ति जिणेहि णिद्दिद्धं ॥ ३२ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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