SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम प्रकरण नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती यापनीय नहीं, दिगम्बर थे आचार्य श्री हस्तीमल जी ने जैनाचार्य परम्परा - महिमा नामक ग्रन्थ के अनुसार भट्टारकसम्प्रदायोत्पत्ति- कथा के प्रसंग में लिखा है 44 'सबसे पहला आश्चर्यकारी तथ्य तो यह है कि भट्टारक- परम्परा का प्रमुख पीठ अथवा सिंहासनपीठ श्रवणबेलगोल भी सर्वप्रथम यापनीयपरम्परा के आचार्य नेमिचन्द्र के द्वारा संस्थापित किया गया और संसारप्रसिद्ध बाहुबली गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा भी इन्हीं यापनीयपरम्परा के आचार्य नेमिचन्द्र ने गंगराजवंश के महाप्रतापी राजा राचमल्ल चतुर्थ के सेनापति एवं महामन्त्री चामुण्डराय के द्वारा करवायी । आचार्य नेमिचन्द्र महामन्त्री चामुण्डाराय के गुरु, गोम्मटसार के रचयिता और यापनीय - परम्परा के क्राणूगण के मेषपाषाणगच्छ के आचार्य थे। अजित - तीर्थंकर - पुराणतिलकम् के रचयिता महाकवि रन्न ( ई० सन् ९९३) ने अपनी इस महान् कृति के बारहवें अध्याय के पद्य २१ में आचार्य नेमिचन्द्र का परिचय देते हुए लिखा है - " श्रीनेमिचन्द्र मुनिगल क्राणूगण - तिलकरवर शिष्यर सद्विद्यानिलयण तानोदिसे कुसलनादन अण्णिगदेवम् ।" क्राणूर्गण यापनीयसंघ का ही गण था । इसके मेषपाषाण गच्छ और तिन्त्रिणीकगच्छ, ये दो गच्छ बड़े ही प्रसिद्ध गच्छ थे |--- दिगम्बरपरम्परा के शोधप्रिय विद्वान् श्री गुलाबचन्द्र चौधरी ने (जै.शि.सं./ मा.च/ भा. ३ की प्रस्तावना में पृ. ५९ पर) क्राणूगण को यापनीयसंघ का गण सिद्ध किया है।" (जै. ध. मौ.इ./ भा. ३ / पृ.१७९-१८०) । आचार्य जी का यह कथन सर्वथा मिथ्या है। यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध १. मैंने इसी अष्टम अध्याय के तृतीय प्रकरण में तथा 'यापनीय संघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय के भी तृतीय प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया है कि क्राणूर् या काणूर् गण तथा उसके मेषपाषाण एवं तिन्त्रिणीक गच्छ मूलसंघ (निर्ग्रन्थसंघ) के ही गण एवं गच्छ थे, यापनीयसंघ के नहीं । यापनीयसंघ में कण्डूर् गण था । यापनीयपक्षधर विद्वानों ने क्राणूर् (काणूर्) और कण्डूर् को एक ही मान लिया है, यह उनका भारी भ्रम है । २. डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी ने क्राणूगण को यापनीयसंघ का गण सिद्ध किया है, यह कथन बिल्कुल असत्य है। उन्होंने तो उक्त प्रस्तावना के ३१ वें पृष्ठ पर यापनीयसंघ के कण्डूगण के विषय में यह लिखा है कि " इस गण का ११वीं शताब्दी में क्या हुआ, सो तो मालूम नहीं, पर मूलसंघ के ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy