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________________ ११० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ४ इन तथ्यों से सिद्ध हो जाता है कि कुन्दकुन्द के आचार्यपद पर प्रतिष्ठित होने के समय ( ई० पू० ८ में) भट्टारकप्रथा का उदय नहीं हुआ था, उनके लगभग बारह सौ वर्ष बाद (१२ वीं शताब्दी में) वह अस्तित्व में आयी थी । अतः न तो कुन्दकुन्द के गुरु माघनन्दी भट्टारकसम्प्रदाय के संस्थापक थे, न ही कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र एवं कुन्दकुन्द स्वयं भट्टारकसम्प्रदाय में कभी दीक्षित हुए थे, न ही कुन्दकुन्द विद्रोह करके गुरु से अलग हुए थे, न ही उनके द्वारा गुरु के नाम- - अनुल्लेख का यह कारण था । अतः आचार्य हस्तीमल जी ने जो इस प्रकार का निष्कर्ष निकाला है, वह सर्वथा अप्रामाणिक है । यदि आचार्य हस्तीमल जी की ओर से यह कहा जाय कि "ठीक है, हम मठवासी मुनियों के सम्प्रदाय को भट्टारकसम्प्रदाय नहीं मानते, पासत्थ- कुसील मुनियों का सम्प्रदाय मान लेते हैं, तब हमारी मान्यता है कि कुन्दकुन्द इसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे।" इसका उत्तर यह है कि पासत्थ- कुसील मुनियों की कोई पट्टावली उपलब्ध नहीं है, जिससे यह प्रमाणित हो कि कुन्दकुन्द उस सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे । तथा किसी भी जैन ग्रन्थ या शिलालेख में यह उल्लेख नहीं है कि कुन्दकुन्द पासत्थकुसील मुनि थे। इसके अतिरिक्त नन्दिसंघ की किसी भी पट्टावली से कुन्दकुन्द का चैत्यवासी या मठवासी होना प्रमाणित नहीं होता। 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में छपी पट्टावली में कुन्दकुन्द आदि को जो भद्दलपुर का पट्टधर कहा गया है, उसकी अप्रामाणिकता पूर्व में सिद्ध की जा चुकी है। तथा इसी पट्टावली से सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द अपने गुरु जिनचन्द्र के आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे। इससे आचार्य हस्तीमल जी की यह कल्पना भी कपोलकल्पना सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द अपने गुरु से विद्रोह करके संघ से अलग हो गये थे । यदि वे संघ से अलग हो गये होते, तो अपने गुरु के पद पर कैसे प्रतिष्ठित होते? तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थ इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने मुनियों के नियतवास, कृषिवाणिज्यकर्म, असंयतों (देवी-देवताओं) की वन्दना, मंत्रतंत्रादिप्रयोग आदि की घोर निन्दा की है। इन क्रियाओं को आगमविरुद्ध बतलाते हुए नरकगति का कारण बतलाया है। इसके अतिरिक्त नन्दिसंघ की सभी पट्टावलियाँ बतलाती हैं कि कुन्दकुन्द न तो अपने गुरु से अलग हुए थे, न संघ से, अपितु अपने गुरु के उत्तराधिकारी बने थे । इन दो प्रमाणों से सिद्ध है कि कुन्दकुन्द आरंभ से ही आगमोक्त मुनिचर्या का नियमपूर्वक पालन करते आ रहे थे। म इस कल्पना के लिये स्थान नहीं छोड़ते कि कुन्दकुन्द कभी पासत्थ- कुसील मुनियों के सम्प्रदाय में रहे होंगे । अतः आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द द्वारा अपने गुरु के नाम का उल्लेख न किये जाने का जो कारण बतलाया है, वह सर्वथा अप्रामाणिक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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