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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / १०९ ६ कुन्दकुन्द अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारकसम्प्रदाय से पूर्ववर्ती ऊपर प्रस्तुत किये गये प्रमाणों से निम्नलिखित तथ्य प्रकट होते हैं १. कुन्दकुन्द ईसापूर्व ८वें वर्ष में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे। आचार्य हस्तीमल जी ने भट्टारकपरम्परा के जिन तीन रूपों की कल्पना की है, उनमें से किसी का भी उस समय अस्तित्व नहीं था । अतः कुन्दकुन्द का भट्टारकपरम्परा में दीक्षित होना असम्भव था । २. नन्दी आदि संघ मूलतः मुनियों के संघ थे। आगे चलकर इन संघों के जो मुनि भट्टारक बने, वे भी अपना सम्बन्ध इन्हीं संघों से जोड़ते रहे। इसलिए नन्दिसंघ की पट्टावलियों में मुनियों और भट्टारकों, दोनों के नाम वर्णित हैं। इन्हीं पट्टावलियों में भद्रबाहु द्वितीय, गुप्तिगुप्त (अर्हद्वलि), माघनन्दी, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वाति आदि के लिए महामुनि, मुनिचक्रवर्ती, सत्संयमी, जातरूपधर आदि विशेषणों के प्रयोग से स्पष्ट कर दिया गया है कि ये आचार्य २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन करनेवाले मुनि थे, मुनि और श्रावक दोनों से भिन्न भट्टारक नहीं । ३. दिगम्बरजैन- साहित्य और शिलालेखों में 'भट्टारक' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । १. पूज्य या आदरणीय के अर्थ में, २. विद्वान् के अर्थ में और ३. अजिनोक्तसवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अर्थ में । अन्तिम अर्थ में उसका प्रयोग १२ वीं शताब्दी ई० से आरम्भ हुआ था । अतः उसके पूर्व जिन आचार्यों के साथ उसका प्रयोग हुआ है, वह आदरसूचनार्थ या विद्वान् मुनि के अर्थ में हुआ है, अजिनोक्तसवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरुं एवं पण्डिताचार्य के अर्थ में नहीं । ४. दिगम्बरजैन - साहित्य में चैत्यवासी या मठवासी मुनियों के सम्प्रदाय को भट्टारकसम्प्रदाय नाम नहीं दिया गया है। उनके लिए 'पार्श्वस्थ (पासत्थ) मुनि' और 'कुशीलमुनि' संज्ञाएँ प्रयुक्त की गई हैं। इसलिए भट्टारकसम्प्रदाय बहुत प्राचीन नहीं है। ५. मठवासी मुनियों से भिन्नता सिद्ध करनेवाले मठवासी भट्टारकों के पाँच असाधारण धर्म हैं - १. भट्टारकपीठ पर आसीन होने के लिए भट्टारकपद की दीक्षा का सम्पन्न होना, २. अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग-ग्रहण, ३. धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकारों का आरोपण ४. दक्षिणा, चढ़ावा, भेंट, शुल्क, कर आदि से अर्थोपार्जन तथा ५. राजोचित ऐश्वर्यमय निरंकुश जीवनशैली । मठवासी मुनियों में इनका अभाव होता था, अतः वे लिंग और कर्म की दृष्टि से भट्टारक नहीं थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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