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१०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ४
३. मठवासी मुनियों की मुनिदीक्षा स्थायी होती थी, किन्तु भट्टारक पहले मुनिपद पर नग्न दीक्षित होते थे, पश्चात् श्रावकों के आग्रह पर वस्त्रधारण कर लेते थे।
४. मठवासी मुनि 'मुनि' होते थे, भट्टारक न मुनि होते थे, न श्रावक, क्योंकि वे मुनिदीक्षा लेकर उसे भंग कर देते थे और श्रावक की एक भी प्रतिमा ग्रहण नहीं करते थे, न ही उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य श्रावक का वेश धारण करते थे ।
५. मठवासी मुनि गृहस्थों का पौरोहित्य नहीं करते थे, भट्टारकों का यही कर्म था। इसलिए मठाधीशों का नाम भट्टारक नहीं था, भट्टारकपीठाधीशों का नाम भट्टारक
था।
६. मठवासी मुनि केवल दान लेते थे, गृहस्थों से दक्षिणा, चढ़ावा, वार्षिक कर और दण्डरूप में अर्थ नहीं लेते थे । भट्टारक यह सब लेते थे ।
७. मठवासी मुनियों की जीवनशैली साधारण थी। भट्टारकों की जीवनशैली राजाओं के समान ऐश्वर्य से परिपूर्ण थी ।
८. मठवासी मुनि साधुओं के संघ में रहते थे, भट्टारक अलग-अलग भट्टारकपीठों में अकेले ही रहते थे। एक पीठ और एक जाति का एक ही भट्टारक होता था । ९. मठवासी - दिगम्बराचार्य मुनियों का नेतृत्व करते थे, भट्टारकपीठाधीश गृहस्थों
का ।
१०. मठवासी मुनियों का मुनिपद एवं आचार्यपद आगमोक्त था, भट्टारकपद आगमोक्त नहीं है।
मठवासी या मठाधीश मुनियों तथा भट्टारकपीठाधीश भट्टारकों में ये दश मौलिक भिन्नताएँ थीं, और वर्तमान में भी हैं, क्योंकि वर्तमान में भी दोनों का अस्तित्व है | तीर्थस्थान आदि में नियतवास करनेवाले मुनियों के दर्शन आज भी होते हैं। पूर्व में भट्टारकों के पाँच असाधारण धर्म बतलाये गये हैं। उनका मठवासी मुनियों में अभाव था, इसलिए वे लिंग और कर्म की अपेक्षा भट्टारक नहीं थे। उनके साथ जुड़ी भट्टारक- उपाधि विद्वत्ता सूचक या आदर- सूचक थी, यद्यपि वे इसके पात्र नहीं थे। वस्तुतः वे पासत्थ- आदि मुनि थे, अतः उनका सम्प्रदाय पासत्थ-आदि मुनियों का सम्प्रदाय था । मठवास, सम्पत्ति - प्रबन्ध, खेती-बाड़ी आदि कराना भट्टारकपीठ पर आसीन पुरुष के असाधारण धर्म नहीं हैं, क्योंकि ये मठवासी मुनियों में भी उपलब्ध होते थे, और जैन साहित्य एवं शिलालेखों में इन प्रवृत्तियों के कारण उनके लिए 'भट्टारक' उपाधि का प्रयोग नहीं किया गया । अतः उनका सम्प्रदाय भट्टारकसम्प्रदाय नहीं था ।
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