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________________ १०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ पर आजिरगेखोल्ल नामक जिले के हाविन-हेरिलगे गाँव में---श्रीमूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के अधिपति, कोल्हापुर के श्रीरूपनारायण-जिनालय के आचार्य श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तदेव के प्रिय छात्र (शिष्य) एवं सकलगुणरत्नों के पात्र---वासुदेव के द्वारा बनावाये गये मन्दिर के श्रीपार्श्वनाथदेव की अष्टविध पूजा के लिये, उस चैत्यालय के टूटे भाग के जीर्णोद्धार के लिए तथा वहाँ रहनेवाले मुनियों के लिए आहारदान हेतु, उसी ग्राम में कुण्डिदण्ड के माप से निवर्तन-चतुर्थ-भाग-प्रमित क्षेत्र तथा बारह हाथ लम्बा एक मकान उन माघनन्दि-सिद्धान्तदेव के शिष्य माणिक्यनंदिपण्डितदेव को उनके पैर धोकर जलधारापूर्वक सबके द्वारा नमस्कारपूर्वक तथा कर आदि की समस्त बाधाएँ दूर करते हुए, जब तक सूर्य, चन्द्र तथा तारों का अस्तित्व है, तब तक के लिए राजाज्ञा द्वारा प्रदान किये।" इस लेख में माणिक्यन्दी के साथ पण्डितदेव की उपाधि होने तथा. उनके द्वारा उक्त दान स्वीकार किये जाने तथा उनके चरण धोये जाने से ज्ञात होता है कि वे रूपनारायण-जिनालय में नियतवास करनेवाले दिगम्बरजैनाचार्य श्री माघनन्दी के भट्टारकशिष्य थे। निम्नलिखित शिलालेख से भी उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है "श्रीमूलसंघ-देशियगण-पुस्तकगच्छ-कोण्डकुन्दान्वयद श्री (य् ) अभयचन्द्रसिद्धान्तिक चक्रवर्तिगळ प्रियशिष्य-रागमाम्बुनिधिगळं सकल-गुणाकळितरुपम्म बालचन्द्रपण्डित-देवर प्रिय-गुड्डिएरु विनयनिधि मालियक्कं ---।" (जै. शि. सं. / मा. च. / भा.३ / लेख क्र. ४३९ / नित्तूर / कन्नड़ / लगभग १२०० ई०/ पृष्ठ २६६)। ___ अनुवाद-"श्रीमूलसंघ, देशियगण, पुस्तकगच्छ और कोण्डकुन्दान्वय के अभयचन्द्र-सिद्धान्तिक-चक्रवर्ती के प्रिय शिष्य बालचन्द्र-पण्डितदेव की प्रिय गृहस्थशिष्या माळियक्के थी।" इस अभिलेख में भी पण्डितदेव उपाधि से तथा 'मालियक्के' नामक गृहस्थमहिला के गुरु होने से बालचन्द्र का आचार्य अभयचन्द्र सिद्धान्तिक-चक्रवर्ती का भट्टारकशिष्य होना सिद्ध होता है। __"स्वस्ति श्री मतु शुभकीर्ति-पण्डितदेवर गुड्डि ---" =स्वस्ति श्रीमान् शुभकीर्तिपण्डितदेव की शिष्या--- । (जै. शि. सं./ मा.च. / भा.३ / ले.क्र.४८९ / ई.सन् १२४३) तथा "चारुकीर्ति-पण्डित-देवम् तच्छिष्यरू" --- = चारुकीर्ति पण्डितदेव, उनके शिष्य-- । (वही/ले.क्र.५२४ / हलेबीड/ ई० सन् १२७९)। इन लेखों में क्रमशः स्वस्ति शब्दपूर्वक तथा चारुकीर्ति नाम के साथ पण्डितदेव की उपाधि का प्रयोग होने से भी सिद्ध होता है कि ये भट्टारकों के नाम हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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