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________________ अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १०५ शब्द पूज्यता-द्योतनार्थ तीर्थंकरों, आचार्यों एवं मुनियों के लिए प्रयुक्त होता था। जब मठवासी पासत्थ-कुसील मुनियों ने वस्त्र धारण कर जिनलिंग का परित्याग करते हुए भी अपने में मुनित्व का आभास देने के लिए पिच्छी-कमण्डलु का त्याग नहीं किया और मोक्षमार्ग को तिलाञ्जलि देकर मन्दिर-मठ-तीर्थादि के प्रबन्ध के अतिरिक्त गृहस्थों के धर्मगुरु का कर्म अपना लिया, तब अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग के कारण उनका अभिधान न तो 'मुनि' शब्द से हो सकता था, न 'एलक-क्षुल्लक' शब्दों से। अतः उन्होंने अपने अभिधान के लिए दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित पूज्यभाव-सूचक 'भट्टारक' शब्द चुन लिया। और श्रावक उन्हें इसी शब्द से सम्बोधित करने लगे। फलस्वरूप उनका समूह 'भट्टारकसम्प्रदाय' शब्द से प्रसिद्ध हो गया। जब तक मन्दिरमठवासी मुनियों ने मुनिलिंग का परित्याग नहीं किया था और धर्मगुरु तथा पण्डिताचार्य बनकर गृहस्थों की धार्मिक क्रियाओं का पौरोहित्य एवं उनकी सामाजिक प्रवृत्तियों पर दण्डात्मक शासन का कर्म नहीं अपनाया था, तब तक उनके समुदाय को भट्टारकसम्प्रदाय जैसे नये नाम की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उनका समुदाय मुनियों के ही नाम से जाना जाता था, और 'मुनि' शब्द अपने आप में पूज्यता-द्योतक था। अतः उनके सम्प्रदाय को भट्टारकसम्प्रदाय कहना इतिहास-सम्मत नहीं है। उनका सम्प्रदाय पासत्थादिमुनिसम्प्रदाय के नाम से ही अभिहित होता था। ५.३. आरंभ में भट्टारक दिगम्बराचार्यों के शिष्य ई० सन् ११४३ (शक सं० १०६५) के कोल्हापुर शिलालेख से ज्ञात होता है कि भट्टारक पहले मन्दिर-मठ में रहनेवाले दिगम्बर जैनाचार्यों के शिष्य होते थे। उक्त शिलालेख में कहा गया है __--- श्रीमद्गण्डरादित्यदेवस्य प्रियतनयः --- श्रीमद्विजयादित्यदेवः --- शकवर्षेषु पञ्चषष्ट्युत्तरसहस्रप्रमितेष्वतीतेषु प्रवर्त्तमानदुंदुभि-संवत्सर-माघ-मासपौर्णमास्यांसोमवारे सोमग्रहणपर्वनिमित्तमाजिरगेखोल्लानुगत-हविन-हेरिलगे-ग्रामे --- श्रीमूलसङ्घ-देशीयगण-पुस्तकगच्छाधिपतेः क्षुल्लकपुर-श्रीरूपनारायण-जिनालयाचार्यश्रीमन्माघनन्दिसिद्धान्तदेवस्य प्रियच्छात्रेण सकलगुणरत्नपात्रेण --- वासुदेवेन कारितायाः वसतेः श्रीपार्श्वनाथदेवस्याष्टविधानार्थं तच्चैत्यालय-खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारार्थं तत्रत्ययतीनामाहारदानार्थं च तत्रैव ग्रामे कुण्डिदण्डेन निवर्तन-चतुर्थभाग-प्रमितं क्षेत्रं द्वादशहस्त-सम्मितं च गृहनिवेशनं च तन्माघनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यानां माणिक्यनन्दिपण्डितदेवानां पादौ प्रक्षाल्य धारापूर्वकं सर्वनमस्यं सर्वबाधा-परिहारमाचन्द्राक्र्कतारं सशासनं दत्तवान्।' (जै.शि.सं / मा.च. / भा.३ / लेख क्र. ३२० / कोल्हापुर / पृ.५३-५४)। अनुवाद-“श्रीमान् गण्डरादित्यदेव के प्रिय पुत्र---श्रीमान् विजयादित्यदेव ने शक सं० १०६५ में दुन्दुभिवर्ष की माघपूर्णिमा सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण के अवसर Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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