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१०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ दिगम्बरपरम्परा में एक नये प्रकार के अदिगम्बर साधु जैसी अपनी छवि दर्शाना तथा श्रावकों के धर्मगुरुपद पर आसीन होना भट्टारकचरित्र की विशेषताएँ हैं। मुनि-एलकक्षुल्लक न होते हुए भी अर्थात् सवस्त्र गृहस्थावस्था में रहते हुए भी भट्टारकों का पिच्छी-कमण्डलु रखना तथा धर्मगुरु के पद पर आसीन होना, ये दोनों प्रवृत्तियाँ आगमविरुद्ध हैं। इस प्रकार पासत्थादिमुनि-चरित्र में गृहस्थकर्म का प्रवेश आगमविरुद्ध है और भट्टारक-चरित्र में मुनिकर्म का समारोपण आगमविरुद्ध है। फलस्वरूप दोनों चरित्र परस्पर विपरीत हैं। इससे सिद्ध है कि आचार्य श्री हस्तीमल जी ने वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद तथा वीरनिर्वाण की नौवीं शताब्दी के अन्तिमचरण में कतिपय दिगम्बरमुनियों में दिखायी देनेवाली चैत्यवासादि जिन प्रवृत्तियों को भट्टारकीय प्रवृत्तियाँ कहा है, वे भट्टारकीय प्रवृत्तियाँ नहीं थीं, बल्कि पासत्थदिमुनि-प्रवृत्तियाँ थीं।
यद्यपि पासत्थादि-मुनियों ने ही ईसा की १२वीं शती में भट्टारकपरम्परा का आरम्भ किया था, तथापि वह तब हुआ था, जब उन्होंने मुनिलिंग त्यागकर पिच्छी-कमण्डलु के साथ एक ऐसा सवस्त्रलिंग धारण कर लिया था, जो मुनि, एलक, क्षुल्लक एवं सामान्य श्रावकों के लिंग से भिन्न था और जिससे वे दिगम्बर-सम्प्रदाय में एक नये प्रकार के अदिगम्बर साधु जैसे दिखते थे तथा जिसकी सहायता से वे श्रावकों के नये प्रकार के धर्मगुरु, धर्माधिकारी अथवा धर्मशासक बनने में सफल हुए। (देखिये, इसी प्रकरण का पूर्व शीर्षक ३)।
__ यदि भट्टारकों ने पासत्थादि साधुओं के केवल गृहस्थकर्म अपनाये होते और अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग ग्रहण न किया होता तथा धर्मगुरुपद न हथियाया होता, तो उनके लिए 'भट्टारक' जैसा पूज्यता-द्योतक नाम प्रसिद्ध न हुआ होता। वे मात्र 'मठमन्दिरप्रबन्धक' ही कहलाते। अतः अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग तथा धर्मगुरुपद, ये दो ही तत्त्व भट्टारकों के 'भट्टारक' नाम से प्रसिद्ध होने के हेतु हैं। पासत्थादि-मुनियों के धर्मगुरुपद के साथ अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग नहीं था, इसलिए वे 'भट्टाकर' शब्द से प्रसिद्ध नहीं हुए, 'मुनि' शब्द से ही प्रसिद्ध रहे। आज भी सम्मेदशिखर आदि तीर्थक्षेत्रों में मन्दिर-मठ बनाकर नियतवास करनेवाले तथा आहार-दान, मन्दिर-निर्माणादि के नाम से दान माँगनेवाले दिगम्बरमुनि पासत्थादि साधु ही हैं, किन्तु वे मुनि ही कहलाते हैं, भट्टारक नहीं। ५.२. 'भट्टारक' संज्ञा का प्रयोग आकस्मिक
_ 'भट्टारक' शब्द मूलतः विद्वत्ता और पूज्यता का द्योतक है। 'भट्टारक' नाम से प्रसिद्ध अजिनोक्त-सवस्त्रसाधु-लिंगधारी, गुरुपद के अपात्र गृहस्थों के लिए 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग अर्थानुरूप नहीं है, अपितु आकस्मिक है। दिगम्बरजैनपरम्परा में यह
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