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अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१०१ धर्म के रूप में बनाये रखने में बड़ा ही श्लाघनीय कार्य किया, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। (जै.ध.मौ.इ. / भा.३ / पृ.१७७)। ४.७. उपर्युक्त कथा की समीक्षा
यद्यपि बलिदान-भय के छल-कपट से समर्पित कराये गये ७७० बालकों को अनागमोक्त, नवकल्पित, सवस्त्र, भावनिर्ग्रन्थ बनाने की यह कथा विश्सनीय नहीं है, यह जैनधर्म के प्राणभूत अहिंसा-सिद्धान्त के विरुद्ध है तथा प्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशम एवं वस्त्रादिपरिग्रहत्याग के अभाव में भावनैर्ग्रन्थ्य असम्भव है, तथापि इससे दो तथ्य सामने आते हैं, एक तो यह कि राजोचित वैभव और प्रभुत्व से सम्पन्न सर्वांगवस्त्रधारी धर्मशासकों या धर्मगुरुओं के रूप में ही भट्टारकसम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ, दूसरा यह कि भट्टारकसम्प्रदाय की उत्पत्ति १२वीं शताब्दी ई० से पूर्व नहीं
संक्षेप में अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु भट्टारकों के असाधारणधर्म (लक्षण) इस प्रकार हैं
१. दीक्षाविधि द्वारा भट्टारकपद पर प्रतिष्ठापन। २. अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग-ग्रहण। ३. धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकारों का आरोपण। ४. दक्षिणा, चढ़ावा, भेंट, शुल्क, कर आदि से अर्थोपार्जन। ५. राजोचित ऐश्वर्य एवं प्रभुत्वमय निरंकुश जीवनशैली।
मठ में नियतवास भट्टारकों का असाधारण धर्म नहीं है, क्योंकि पासत्थादि मुनि भी मठादि में नियतवास करते हैं। हाँ, यह उनका अनिवार्य धर्म अवश्य है।
मन्दिरमठवासी-मुनिपरम्परा भट्टारक-परम्परा नहीं आचार्य हस्तीमल जी और कुछ दिगम्बर विद्वानों ने११५ मन्दिरमठवासी दिगम्बर मुनियों के सम्प्रदाय को भी भट्टारकसम्प्रदाय का कहा है। यह समीचीन नहीं है। यद्यपि जो गृहस्थकर्म पासत्थादि-मुनि करते थे, वे भट्टारकों द्वारा भी किये जाते हैं, जैसे मठवास,
११५. क-मिलापचन्द्र कटारिया : जैन निबन्ध रत्नावली/ भाग १ / पृ० ४३०। ख–'भट्टारकसम्प्रदाय' ग्रन्थ के कर्ता प्रो० जोहरापुरकर ने धवलाकार वीरसेन स्वामी
तथा उनके शिष्यों को भट्टारकसम्प्रदाय का बतलाया है।
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