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________________ १०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ४ भूमिग्रामादिदान-ग्रहण, मन्दिरमठ की सम्पत्ति का प्रबन्ध और उपभोग इत्यादि, तथापि वे सम्प्रदायविशेष के व्यक्ति की सूचक 'भट्टारक' संज्ञा के हेतु नहीं हैं, क्योंकि उनके कारण पासत्थादि-मुनियों के लिए 'भट्टारक' संज्ञा प्रचलित नहीं हुई। उनके लिए 'भट्टारक' संज्ञा का प्रचलित न होना ही इस बात का अखण्ड्य प्रमाण है कि उनके गृहस्थकर्म 'भट्टारक' संज्ञा के हेतु नहीं थे । यदि होते, तो जैसे ईसा की १२वीं शताब्दी में अजिनोक्तसवस्त्रसाधुलिंग धारण कर धर्मगुरुपद हथियानेवाले तथा 'स्वामी', 'जगद्गुरु', 'कर्मयोगी', पण्डिताचार्य इत्यादि उपाधियों से अपनी महिमा बढ़ानेवाले भट्टारकों के लिए 'भट्टारक' संज्ञा अकस्मात् प्रचलित हो गयी, वैसे ही पासत्थादि-मुनियों के लिये भी प्रचलित हो जाती। इससे सिद्ध है कि पासत्थादि - मुनियों के गृहस्थकर्म 'भट्टारक' संज्ञा के हेतु नहीं थे। आचार्य श्री हस्तीमल जी के मत का निरसन नीचे किया जा रहा है। उस के निरसन से दिगम्बरजैन विद्वानों का वैसा ही मत स्वतः निरस्त हो जाता है। ५.१. आचार्य हस्तीमल जी के मत का निरसन प्रस्तुत अध्याय के द्वितीय प्रकरण (शी. १ ) में आचार्य श्रीहस्तीमल जी के विचार उद्धृत किये गये हैं। उन्होंने बतलाया है कि इतिहास में भट्टारकपरम्परा के तीन रूप उपलब्ध होते हैं। प्रथम रूप का विकास वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद ( ई० सन् ८२ में) ही हो गया था, जब मुनियों ने चैत्यवास शुरू कर दिया था और भूमिग्रामस्वर्णादि का दान ग्रहण करने लगे थे। वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी (तृतीय शताब्दी ई० ) के अन्तिम चरण में भट्टारकपीठ स्थापित होने लगे, राज्याश्रय प्राप्त किया जाने लगा और मंत्र-तंत्र, ज्योतिष - औषधि आदि के प्रयोग से जनमानस को अपने अधीन किया जाने लगा। यह भट्टारकपरम्परा का द्वितीय रूप था। ईसा की १२वीं शताब्दी में उक्त मुनियों ने मुनिलिंग त्याग दिया और वस्त्रधारण कर मठों में रहते हुए उपर्युक्त सभी कार्य करते रहे तथा श्रावकों के नये प्रकार के धर्मगुरु भी बन गये। यह भट्टारकपरम्परा का तृतीय और वर्तमान रूप है। आचार्य जी ने भट्टारकरपरम्परा के विकास के जो ये तीन रूप बतलाये हैं, वे अप्रामाणिक हैं। कुछ मुनियों में चैत्यवास, भूमिग्रामादिदान- ग्रहण, मंत्र-तंत्र ज्योतिष - औषधि के प्रयोग द्वारा ख्यातिलाभ - जीविकोपार्जन आदि की प्रवृत्तियाँ सदा रही हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हें अनादिकालीन कहा है । ( भावपाहुड / गा. १४) । इनका आश्रय लेनेवाले मुनियों को आगम में पासत्थ, कुसील आदि नामों से अभिहित किया गया है । (देखिये, इसी प्रकरण का पूर्व शीर्षक ३) । इसलिए जैनपरम्परा के मुनियों में इन प्रवृत्तियों का विकास वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद मानना प्रामाणिक नहीं है। अनादिकालीन होने से इन्हें विकसित नहीं माना जा सकता। और यदि विकसित भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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