________________
१०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ "उपर्युक्त दोनों शिलालेखों की तिथियों के सम्बन्ध में विचार करने पर विकम सं० ११८० तक आचार्य माघनन्दी की विद्यमानता और वि० सं० ११९२ से पूर्व उनका स्वर्गगमन अनुमानित किया जा सकता है।
"कोल्हापुर के शिलाहारवंशीय महाराजा गण्डरादित्य और उनके महासामन्त सेनापति निम्बदेव का समय भी कोल्हापुर एवं उनके आस-पास के तेरदाल से उपलब्ध हुए शिलालेखों से ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ई० सन् ११४३ के पहले तक का अनुमानित किया जा सकता है। क्योंकि तेरदाल के ई० सन् ११२३२४ के शिलालेख में तेरदाल में नेमिनाथ-मन्दिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर माघनन्दी के साथ इन दोनों का उल्लेख है। कोल्हापुर के शुक्रवारी मुख्यद्वार के समीप से उपलब्ध हुए ई० सन् ११४३ के शिलालेख में दानदाता के रूप में गण्डारादित्य के स्थान पर उसके पुत्र महाराजा विजयादित्य का उल्लेख है। इससे गण्डरादित्य और निम्बदेव का समय ई० सन् ११२३ से ११४३ के बीच का. तो पूर्णरूपेण सुनिश्चित ही है।
"इन सब पुरातात्त्विक साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर आनुमानिकरूपेण यह सिद्धप्रायः हो जाता है कि आचार्य माघनन्दी, महाराजा गण्डरादित्य और महासामन्त निम्बदेव की अभिसन्धि के परिणामस्वरूप जिन ७७० किशोरों को सवस्त्र श्रमण के रूप में दीक्षित कर उन्हें उच्चकोटि का शिक्षण दे, उनमें से योग्यतम मुनियों को अनुक्रमशः मुख्य भट्टारकपीठ तथा विभिन्न प्रदेशों में नवसंस्थापित पच्चीस (२५) भट्टारकपीठों के भट्टारकपद पर प्रतिष्ठित-अधिष्ठित किये जाने की यह आत्यन्तिक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से बारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीच के किसी समय में घटित हुई।"--- (जै. ध. मौ. इ./ भा.३/ पृ.१७५-१७६)।
__ "राजाओं के समान ही छत्र, चामर, सिंहासन, रथ, शिविका, दास-दासी, भूमि-भवन आदि चल-अचल सम्पत्ति और विपुल वैभव के धनी भट्टारक अपनेअपने पीठ से विद्या के प्रसार के साथ धार्मिक शासक के रूप में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। उन भट्टारकपीठों द्वारा संचालित विद्यापीठों में शिक्षाप्राप्त स्नातकों ने धर्मप्रचार के क्षेत्र के समान ही साहित्यनिर्माण के क्षेत्र में भी अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। जैनधर्म के मूल स्वरूप में, श्रमणों के शास्त्रीय, मूल, विशुद्ध स्वरूप में विकृतियों के सूत्रपात्र के लिए उत्तरदायी होते हुए भी भट्टारकपरम्परा द्वारा किये गये इन सब कार्यों का लेखा-जोखा करने के पश्चात् यदि यह कहा जाय कि एक प्रकार के उस संक्रान्तिकाल में भट्टारकपरम्परा ने जैनधर्म को एक जीवित
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org