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अ०८/प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ९९ ही परम्परा के आचार्य मानने को तैयार है? कभी नहीं। इस भट्टारकपरम्परा के आचार्यों ने और स्वयं आचार्य माघनन्दी ने मन्दिरों, वसदियों, मठों आदि का पौरोहित्य किया, साधुओं के आहार आदि की व्यवस्था के लिए , मन्दिरों, वसदियों के निर्माण, पुननिर्माण, जीर्णोद्धार अथवा पूजा-अर्चा आदि की व्यवस्था के लिये ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्यदान आदि ग्रहण किये। इन आचार्यों द्वारा ग्रहण किये गये ग्रामदान, भूमिदान आदि दान का प्राचीन अभिलेखों से विस्तृत विवरण तैयार किया जाय, तो हजारों पृष्ठ की पुस्तक भी अपर्याप्त रहेगी। इस प्रकार दान ग्रहण करनेवाले, मठों, मन्दिरों एवं वसदियों में नियतनिवास करने और स्वर्ण-सिंहासन, छत्र-चामरादि का उपभोग करनेवाले भट्टारकपरम्परा के आचार्यों और गिरि-गुहाओं में साधनापूर्ण जीवन जीनेवाले निष्परिग्रही आचार्यों को एक ही परम्परा का मानना वस्तुतः उन निष्परिग्रही आचार्यों के साथ अन्याय होगा।" (जै.ध.मौ.इ./ भा.३ / पृ.१७४-१७५)।
आचार्य माघनन्दी का समय-"उपलब्ध शिलालेखों में सर्वप्रथम आचार्य माघनन्दी का नाम एक प्रख्यात एवं समर्थ मण्डलाचार्य के रूप में सांगली क्षेत्र के तेरदाल नगर के भगवान् नेमिनाथ के मन्दिर में रट्टवंशीय मुख्य माण्डलिक गोंक द्वारा दिये गये भूमिदान के शिलालेख में अंकित है। इस मन्दिर के निर्माण के पश्चात् इसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर रट्टवंशीय राजा कार्तवीर्य द्वितीय और कोल्हापुर के लोकविश्रुत मण्डलाचार्य माघनन्दी को विशेषरूप से तेरदाल में आमन्त्रित किया गया था और वे दोनों ही उक्त शिलालेख के उल्लेखानुसार उस प्रतिष्ठा-महोत्सव के समय तेरदाल में उपस्थित हुए थे। इस शिलालेख पर वर्ष विक्रम सं० ११८० तदनुसार ई० सन् ११२३-२४ अंकित है। इससे सिद्ध होता है कि आचार्य माघनन्दी की कीर्ति ईसा की १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ से पूर्व ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में ही फैल चुकी थी। उस समय वे कोल्हापुर की रूपनारायण वसदि के अधिष्ठाता और कोल्हापुर राज्य के साथ-साथ उसके आस-पास के विशाल क्षेत्र के मण्डलाचार्य अर्थात् सत्तासम्पन्न प्रभावशाली आचार्य थे। रूपनारायण वसदि का निर्माण कोल्हापुर के शिलाहार-वंशीय राजा गण्डरादित्य के महासामन्त निम्बदेव ने तेरदाल में गोंक द्वारा निर्मापित नेमिनाथ के मन्दिर से पर्याप्त समय पूर्व करवाया था। रूपनारायण वसदि के निर्माण के पश्चात् निम्बदेव ने कोल्हापुर के कवड़ेगोल्ला बाजार में भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर भी बनवाया, इस प्रकार का उल्लेख कोल्हापुर के शुक्रवारी दरवाजे के पास मिले एक शिलालेख में है। इस शिलालेख में इस मन्दिर की सर्वांगीण सुव्यवस्था के लिये व्यापारियों के अय्यावले ५०० नामक महासंघ ने अपने व्यापार की दैनन्दिन आय के अंश का दान वि० सं० ११९२ में सदा के लिये रूपनारायण वसदि के तत्कालीन अधिष्ठाता आचार्य श्रुतकीर्ति को दिया, जो कि मण्डलाचार्य माघनन्दी के शिष्य थे।
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