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९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ४
और चारुकीर्ति (३१वें) ने अपनी रचना जैनाचार्य परम्परा महिमा में
लिखा है
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श्री मूलसङ्घाचार्योऽयमिति सर्व प्रसिद्धिजम् । तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम्॥ २१४॥ धर्माचाराय कृतवान्पञ्चविंशति तत्तद्योग्यान्स्थापयित्वा शिष्यान्शास्त्रविशारदान् ॥ २१५ ॥
पीठिका: ।
राजतं पीठमेतेषां पादुके दारुकल्पिते । छत्र-चामर-शून्यं तद्राजचिह्नमितीडितम् ॥ २१६ ॥
प्रोक्त्वा तद्दापयित्वाथ तानाहूय मुनीश्वरः । आचार्यसेवका यूयमिति तेषां समब्रवीत्॥ २१७॥
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" आचार्य माघनन्दी ने युवावय के अपने ७७० शिष्यों को सिद्धान्तों के साथसाथ व्याकरण, छन्दशास्त्र, ज्योतिष आदि सभी प्रकार की विद्याओं का उच्चकोटि का प्रशिक्षण दे कर भारत के विभिन्न भागों में २५ भट्टारकपीठ ( आचार्यपीठ) स्थापित कर जैनधर्म के प्रचार-प्रसार और भट्टारकपरम्परा के विस्तार के लिये देश के कोनेकोने में भेजा । माघनन्दी द्वारा बड़े पैमाने पर किये गये उस देशव्यापी सामूहिक अभियान के परिणामस्वरूप मध्ययुग में भट्टारकपरम्परा एक बहुजन सम्मत सबल संगठन बन गई और देश के अति विशाल भू-भाग पर इसका उल्लेखनीय वर्चस्व छा गया । " (जै.ध. मौ.इ. / भा. ३ / पृ.१७३-१७४) ।
" इतिहास के विद्वानों, शोधार्थियों एवं इतिहास में अभिरुचि रखनेवालों के लिये यह तथ्य चिन्तनीय, मननीय, पर्यालोचनीय एवं आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक सूक्ष्म दृष्टि से विचारणीय है कि दिगम्बरपरम्परा के परम्परागत श्रमणाचार ही नहीं, अपितु श्रमणवेष का पूर्णतः परित्याग कर देने के उपरान्त भी भट्टारकपरम्परा के मूर्द्धन्य आचार्यों, मण्डलाचार्यों, पीठाधीशों एवं साधुओं ने अपनी परम्परा के नाम मूलसंघ, कौण्डकौण्डान्वय ( कुन्दकुन्दान्वय), देशीगण और पुस्तकगच्छ आदि वही रखे, जो दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित थे।
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" उदाहरण के लिये आचार्य माघनन्दी का नाम अथवा इनके द्वारा अभिनवरूप में संस्थापित भट्टारकपरम्परा के किसी भी आचार्य का नाम ले लिया जाय, इन सब ने अपनी परम्परा की पहिचान मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, देशीगण और पुस्तकगच्छ के नाम से दी है । परन्तु क्या कोई भी इतिहास का विद्वान् इस परम्परा के प्राचीन आचार्यों और आचार्य माघनन्दी तथा उनके द्वारा स्थापित भट्टारकपरम्परा के आचार्यों को एक
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