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________________ अ०८/प्र०४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ९७ तथापि दीयते देश-काल-शक्त्यनुसारतः। शक्तितस्तप इत्येतत्सर्वसिद्धान्तसम्मतम्॥ १७७॥ एतेषां भावनैर्ग्रन्थ्यमेव शक्तिप्रचोदितम्। अति बाला इमे यस्मान्न द्रव्यगमुदीरितम्॥ १७८॥ सौवर्णं राजतं लौहमयं वेत्रान्वितं च वा। मतं वलयपिच्छं हि यथायोग्यं न चान्यथा॥ १७९ ॥ यस्मादिमे विस्मरन्ति लीलासङ्कल्पचोदिताः। वेत्रदण्डान्वितं पिच्छं तस्मात्तद्वलयान्वितम्॥ १८०॥ __ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा "सोने, चाँदी और लोहे के वलय से वेष्टित वेत्रदण्डयुक्त पिच्छ हाथ में लिये और वस्त्र धारण किए हुए भाव-निर्ग्रन्थ-श्रमणधर्म में दीक्षित एक साथ ७७० मुनियों के विशाल जनसमूह को कोल्हापुर में देखकर हर्षविभोर उपस्थित जनसमूह ने अवश्यमेव कहा होगा-"अहो! आज तो यह कोल्हापुर वस्तुतः क्षुल्लकपुर बन गया है। शिलालेखों में क्षुल्लकपुर के नाम से कोल्हापुर के उल्लेख से भी जैनाचार्य-परम्परा-महिमा नामक पुस्तक की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।"--- (जै.ध.मौ.इ./ भा.३ / पृ.१७१-१७२)। "भट्टारकपरम्परा के पीठाधीश आचार्यों के पास भव्य भवन, भृत्य, भूमि, चल-अचल सम्पत्ति, विपुल धनराशि, छत्र, चामर, सिंहासनादि राजचिह्नों एवं शिविका आदि रखने का भी प्रावधान आचार्य माघनन्दी ने रखा।१४ (जै.ध.मौ.इ./ भा.३/पृ.१७२)। "आचार्य माघनन्दी कितने प्रतापी, यशस्वी, लोकप्रिय एवं कुशल प्रभावक आचार्य थे, इस सम्बन्ध में यशस्वी अग्रगण्य पुरातत्त्वविद् विद्वान् स्व० श्री पी० बी० देसाई और 'जैनाचार्य परम्परा महिमा' के शताब्दियों पूर्व हुए रचनाकार भट्टारक चारुकीर्ति (३१वें ) के उल्लेखों में कितना साम्य है, यह द्रष्टव्य एवं माननीय है। स्व० श्री देसाई ने अपनी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति-JAINISM IN SOUTH INDIA & SOME JAINA EPIGRAPHS' के पृष्ठ 121 पर लिखा है "Maghanandi of the Roopa Narayan temple of Kolhapur was an eminent personality in the history of Jaina church of this area, & he contributed immensely to the prosperity of the faith by his erudition & efficient administration of the ecelesiastical organisations under him & through the able band of his scholarly desciples, during his long regime of nearly three generations." ११४. देखिए , पादटिप्पणी क्र. १०६, १०७, १०८ (श्लोक २०५-२१३)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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