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९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ इस कथा का वर्णन करनेवाले "जैनाचार्य-परम्परा-महिमा" नामक ग्रन्थ पर टिप्पणी करते हुए आचार्य हस्तीमल जी लिखते हैं
"जैनाचार्य परम्परा महिमा नामक लघु ग्रन्थ के रचनाकार भी चारुकीर्ति हैं और उन्होंने अपने आपको उन चारुकीर्ति का ३१वाँ पट्टधर बताया है, जिन्होंने कि महाराजा वल्लाल के प्राणों की रक्षा की थी
"जैनाचार्य परम्परा महिमा नामक ३४९ श्लोकों के हस्तलिखित लघु ग्रन्थ के आधार पर जो भट्टारकपरम्परा पर प्रकाश डाला गया है, उसमें वर्णित आचार्य माघनन्दी, गण्डरादित्य राज-राजेश्वर, राजा वल्लाल, महासामन्त निम्बदेव, आचार्य माघनन्दी का विशाल शिष्य-परिवार आदि-आदि प्रायः सभी पात्र वस्तुतः ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले पुरातात्त्विक ठोस प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। महासामन्त निम्बदेव द्वारा निर्मित कोल्हापुर की 'रूपनारायण वसदि' में तथा कोल्हापुर संभाग के कागल नामक नगर के समीपस्थ होन्नूर के जैनमन्दिर में और कुण्डी-प्रदेशस्थ सांगली विभाग के तेरदाल-नगर के नेमिनाथ-मन्दिर में मिले शिलालेखों से इन सब की ऐतिहासिकता के साथ-साथ भट्टारक-परम्परा के प्रादुर्भाव एवं माघनन्दी, वल्लाल, गण्डरादित्य (गण्डादित्य), निम्बदेव आदि का समय भी ऐतिहासिक आधार पर सुनिश्चित होता है।" --- (जै.ध.मौ.इ./ भा.३ / पृ.१६७)।
"कोल्हापुर के विभिन्न शिलालेखों में कोल्हापुर, कोलगिर और क्षुल्लकपुर ये ३ नाम उटैंकित मिलते हैं। कोल्हापुर का क्षुल्लकपुर नाम इस नगर में भट्टारकपरम्परा के प्रादुर्भाव की उस अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना को महत्त्व देते हुए ही रखा गया प्रतीत होता है, जिसका कि उल्लेख मेकेन्जी के संग्रह में उपलब्ध जैनाचार्य परम्परा महिमा नाम की हस्तलिखित पुस्तक में विद्यमान है, जो अभी तक प्रकाश में नहीं आई है। भट्टारकपरम्परा के प्रादुर्भाव पर प्रकाश डालनेवाली उस ऐतिहासिक घटना का विवरण ऊपर प्रस्तुत कर दिया गया है कि आचार्य माघनन्दी, कोल्हापुरनृपति गण्डरादित्य और उनके महासामन्त सेनापति निम्बदेव की अभिसन्धि से आचार्य माघनन्दी को ७७० (सात सौ सत्तर) कुलीन, कुशाग्रबुद्धि, स्वस्थ, सुन्दर एवं सशक्त किशोर, शिष्यों के रूप में मिले। सिद्धान्तों एवं सभी विद्याओं का शिक्षण देने से पूर्व ही आचार्य माघनन्दी ने अपने उन ७७० शिष्यों को भावनिर्ग्रन्थ दीक्षा देते समय कहा था
गण्डादित्यनराधीश! शृणु सर्वेऽपि बालकाः। इमे दीक्षां हि गृह्णन्ति महद्भिः पुरुषैभृताम्॥ १७५ ॥ क्व महाव्रतमेतद्धि सुविरक्तिप्रबोधितैः। महाधीरेधृतं क्वैते बालकाः बलवर्जिताः॥ १७६ ॥
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