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अ०८ / प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / ९५
'भट्टारक रामचन्द्र के पश्चात् श्रवणबेल्गुल के सिंहासन पर भट्टारक-शिरोमणि देवकीर्ति हुए । तदान्तर भट्टारक देवचन्द्र हुए, जिनके द्वार पर छोटिंग नामक यक्ष सदा बैठा रहकर इनके द्वारपाल का कार्य करता था। बैताली सदा इनके चरणयुगल की सेवा करती थी और अनेकों व्यन्तर इनकी पालकी को उठाते थे। अनेक भूतगण उनका आदेश पालने के लिए सदा तत्पर रहते । देवचन्द्र के पश्चात् उनके शिष्य चारुकीर्ति आचार्यपद पर आसीन हुए। ये चारुकीर्ति भट्टारकों में सूर्य के समान थे । चारुकीर्ति वस्तुतः अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे, अतः इनकी कलिकाल - गणधर के नाम से चारों ओर ख्याति फैल गई थी । महाराजा वल्लाल के प्राणों की रक्षा करने के कारण आपकी यशोपताका सुदूर प्रान्तों तक फहराने लगी थी ।
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" एकदा महाराजाधिराज वल्लाल के राजप्रासाद में ज्वालामुखी के समान एक भीषण विवर (बिल) प्रकट हुआ। उस बिल में से अग्नि की भीषण ज्वालाएँ निकलने लगीं, बड़े-बड़े अंगारे निकल कर चारों और फैलने लगे। उस बिल में से इतना अधिक धुआँ निकलने लगा कि प्रासाद और गगन - मण्डल उस धुएँ से इस प्रकार छा गया, जैसे कि वर्षाकाल में घुमड़ती हुई घनघटाओं से आकाश आच्छादित हो गया हो। उस बिल से जो प्रलयंकर दृश्य उत्पन्न हुआ, वह इतना बीभत्स था कि उसे देखते ही लोग मूच्छित हो जाते थे। उस ज्वालामुखी की शान्ति के अनेक उपाय सोचे गये। मिथ्यादर्शनियों ने उसकी शान्ति का उपाय बताते हुए राजा से कहा कि इस बिल को महिष, बकरों आदि पशुओं के रक्त से भर दिया जाय। बिना पशुओं के रक्त के यह बिल बन्द होनेवाला नहीं है । राजाधिराज वल्लाल इस पापकृत्य के नाम मात्र से काँप उठा। उसने भट्टारक चारुकीर्ति की सेवा में उपस्थित हो संकट से रक्षा की प्रार्थना की । चारुकीर्ति भट्टारक ने कुष्माण्डिनी देवी का आह्वान कर कुष्माण्डों से उस बिल को भर दिया और उस पर सिंहासन जमा कर वे उस पर बैठ गये । तत्काल ज्वालामुखी बिल द्वारा उत्पन्न घोर संकट नष्ट हो गया। अंग आदि अनेक देशों के राजाओं ने साष्टांग प्रणाम कर चारुकीर्ति की स्तुति की और उन्हें 'वल्लालराज सज्जीव रक्षक' के विरुद से विभूषित कर छहों दर्शनों की उपासक सम्पूर्ण प्रजा का स्थापनाचार्य घोषित किया।
"इन भट्टारक चारुकीर्ति के आचार्यकाल में जिनशासन की प्रतिष्ठा पराकाष्ठा पर पहुँच गई। जन-जन के अन्तर्मन पर चारुकीर्ति के नाम की गहरी छाप अंकित हो गई। चारुकीर्ति के नाम के चमत्कार को दृष्टि में रखते हुए यह नियम बना दिया गया कि कालान्तर में श्रवणबेल्गुल के सिंहासन पर अभिषिक्त होनेवाले सभी भट्टारकों का नाम चारुकीर्ति ही रखा जाय । ' ।" ११३ (जै.ध. मौ.इ./ भा.३/पृ.१५२ - १६६)। ११३. श्रवणबेल्गुल में अद्यावधि यही नियम प्रचलित है । (सम्पादक)
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