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________________ ९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ "महाराजा चामुण्ड अपने उन आचार्यदेव नेमिचन्द्र के पादप्रक्षालन एवं उनकी अर्चा-पूजा के लिये सदा समुद्यत रहता था। महाराज चामुण्ड ने १,९६,००० (एक लाख छ्यानवे हजार) मुद्राओं की प्रतिवर्ष आयवाला विशाल भूखण्ड गोम्मटेश को भेंट के रूप में सदा-सर्वदा के लिए समर्पित किया।११ महाराज चामुण्ड ने श्रवणबेल्गुल में नन्दीश्वर महापूजा आदि अनेक भव्य महोत्सव आयोजित किये। उन महोत्सवों के कारण श्रवणबेल्गुल नगर सदा धर्मनगर का रूप धारण किये रहता था। "इस प्रकार गोमटेश्वर तीर्थ की स्थापना, श्रवणबेल्गुल में दक्षिणाचार्य के प्रधानपीठ की प्रतिष्ठापना और अनेक महोत्सवों के आयोजनों के पश्चात् चामुण्डराज अपने गुरु दक्षिणाचार्य श्रीनेमिचन्द्र की आज्ञा प्राप्त कर शंखनादों एवं दुन्दुभि आदि नानाविध वाद्यों के निर्घोषों के साथ श्रवणबेल्गुल से सदलबल प्रस्थित हो अपने राज्य की राजधानी दक्षिण मथुरा (मदुरा)पहुँचा और गोमटेश जिन के चरणयुगल का स्मरण करता हुआ न्यायनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। महाराज चामुण्ड की सेना में ८००० हाथी, १०,००,००० अश्वारोही और अगणित पदाति सुभट थे।११२ "उधर सिद्धान्तदेव आचार्य नेमिचन्द्र श्रवणबेल्गुल में रहते हुए तीर्थ का अभिवर्द्धन एवं धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। वे जिनेन्द्रमार्ग के सार्वभौम सर्वोच्च अधिकार एवं सत्ता सम्पन्न अधिनायक आचार्य थे। "आचार्य श्रीनेमिचन्द्र के पश्चात् कलधौतनन्दी दक्षिणाचार्य के पद पर अधिष्ठित किये गये। आचार्य कलधौतनन्दी के पश्चात् हुए कतिपय दक्षिणाचार्यों के नाम जैनाचार्य परम्परा महिमा नामक लघु ग्रन्थ में निम्नलिखित क्रम से दिये गये हैं। --- "जिस प्रकार रोहणगिरि से अनमोल रत्न निकलते हैं, उसी प्रकार मुनिरत्नों की खान श्रवणबेल्गुल के मुख्य पीठ से अनेक महान् आचार्यों का उदय हुआ। ये सभी आचार्य विपुल विद्यावैभव के धनी और शाप तथा अनुग्रह दोनों ही विद्याओं में सक्षम थे। यह श्रवणबेल्गुल मुख्यपीठ के सिंहासन का ही चमत्कार था कि जो भी मुनि आचार्यपद पर अभिषिक्त हो इस सिंहासन पर बैठता, वही इस सिंहासन की शक्ति से स्वतः ही शापानुग्रह-समर्थ और अद्भुत विद्यावैभव-सम्पन्न हो जाता था। १११. षण्नवत्यन्वितं भक्त्या सहस्रं लक्षपूर्वकम् । राज्यं चामुण्डभूपालो गोमटेशस्य सन्ददौ॥ २४६ ॥ नियुतं षण्नवत्युद्धसहस्रान्वितमादरात्। राज्यं चामुण्डभूपालो, गोमटेशस्य सन्ददौ ॥ २४७॥ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। ११२. अष्टौ दन्तिसहस्राणि दशलक्षतुरङ्गमाः। भटानां गणना नैव तद्भूपालबलाम्बुधौ ॥ २५१॥ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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