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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ९३ बाहुबली की मूर्ति के दर्शनों की अभिलाषा लिये मदुरापत्तन से पोदनपुर की ओर प्रस्थित हुआ। उसके साथ उसकी विशालवाहिनी और भृत्यगण भी थे। प्रयाण और स्थान-स्थान पर पड़ाव डालकर विश्राम करते हुए वे सब बेल्गोल के पास पहुँचे । बेल्गोल के पास गगनचुम्बी गिरिराज विन्ध्याचल को देख महाराज चामुण्ड ने वहाँ रात्रि - विश्राम के लिए पड़ाव डाला । " रात्रि की अवसानवेला में राजा चामुण्ड के पूर्वार्जित पुण्यों के प्रताप से नखशिख (आपात्शीर्ष) शृंगार की हुई सपुत्रा कुष्माण्डिनी देवी ने स्वप्न में चामुण्डराय को दर्शन दे परम प्रसन्न मुद्रा में उससे कहा - " ओ महिप चामुण्डराय ! तुम सदल - बल इतनी दूरी पर अवस्थित पोदनपुर तक कैसे पहुँच सकोगे, अर्थात् वहाँ क्यों जा रहे हो ? रावण द्वारा अर्चित- पूजित गोम्मटेश की मूर्ति यहीं विन्ध्यगिरि के विशाल शिलाखण्डों से ढँकी हुई विद्यमान है। तुम्हारे द्वारा बाण के प्रयोग मात्र से गोम्मटेश तुम पर प्रसन्न हो जायेंगे और तुम्हें दर्शन दे देंगे।" बस इतना ही कह कर देवी कुष्माण्डिनी अदृश्य हो गई । १०९ " सूर्योदय होते ही महाराज चामुण्ड ने आचार्य नेमिचन्द्र को अपना आद्योपान्त स्वप्न सुनाया और उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर देवी द्वारा निर्दिष्ट स्थान में बाण चलाया। बाण चलाते ही सब को दर्शन देते हुए गोम्मटेश प्रकट हो गये । तत्काल महाराज चामुण्ड ने गोम्मटेश जिन की पूजा की। आचार्य नेमिचन्द्र ने शास्त्रों से सार ग्रहण कर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और लब्धिसार नामक तीन सारभूत उत्तम ग्रंथों की रचना की। वहीं बेल्गोल पत्तन में राजा चामुण्डराय ने भी लोकभाषा में 'त्रिषष्टि ( श्लाघ्य ) पुरुष पुराण' नामक पुराण की रचना की । " बेल्गोल में गोम्मटेश के प्रकट होने, गोम्मटसार आदि सारत्रय उत्तम ग्रन्थों के प्रणयन तथा 'त्रिषष्टि पुरुष पुराण' की रचना, इन तीनों कारणों से बेल्गोल पत्तन में दक्षिणाचार्य प्रवर का महासिंहासन स्थापित कर वहाँ भट्टारकपरम्परा का प्रमुख पीठ स्थापित किया गया । श्रवण-बेल्गोल के उस महासिंहासन पर विराजमान आचार्य नेमिचन्द्र सुशोभित होने लगे । ११० १०९. अस्मिन् विन्ध्याचले स्थूलशिलाखण्डतिरोहितः । स एव गोम्मटेशोऽस्ति रावणेन बाणप्रयोगमा समर्चितः॥ २३५॥ जायते । प्रसन्नस्तव इति वाचं समुद्गीर्य तिरोभूत्वा गता हि सा ॥ २३६ ॥ जैनाचार्य - परम्परा - महिमा । ११०. दक्षिणाचार्यवर्यस्य तस्माद्वेलगुलपत्तनम् । महासिंहासनस्थानं जातं सौख्याकरं यतः ॥ २४२ ॥ तद्वेल्गुलमहासिंहासनासीनो नेमिचन्द्राख्यसिद्धान्तदेवो मुनीश्वरः । गुणनिधिर्बभौ ॥ २४४ ॥ जैनाचार्य - परम्परा - महिमा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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