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९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ "भट्टारकपीठों की सर्वप्रथम स्थापना-तत्पश्चात् आर्य माघनन्दी ने धर्मसंघ (भट्टारक- सम्प्रदाय) की समुचित व्यवस्था के लिए २५ पीठों की स्थापना की। उन सभी पीठों पर आर्य माघनन्दी ने अपने सुयोग्य एवं शास्त्रज्ञ विद्वान् शिष्यों को पीठाधीशों के पद पर नियुक्त किया। उन पच्चीसों पीठाधीशों को छत्रचामरादि-चिह्नरहित चाँदी के सिंहासन और काष्ठ की पादुकाएँ प्रदान की गईं। उन पच्चीसों ही पीठाधीशों को सम्बोधित करते हुए आचार्य माघनन्दी ने कहा-"तुम सब लोग आचार्य सिंहनन्दी के सेवक हो।१०८ तुम सब लोग अपने-अपने पीठों पर जाकर जिनशासन का प्रचारप्रसार करो।" उन सब ने भी अपने आचार्यदेव की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने-अपने पीठ पर जाकर वे जिनशासन की सेवा में निरत हो गये।
"एक समय आचार्य सिंहनन्दी अपने विशाल शिष्यसमूह से परिवृत हो विविध वाद्ययन्त्रों की सुमधुर ध्वनियों एवं जय-जयकार के गगनभेदी निर्घोषों के साथ दक्षिण मथुरा गये। वहाँ के महाप्रतापी एवं शौर्यशाली महाराजा राचमल्ल तथा उनके महामात्य चामुण्डराय ने आचार्यश्री की अगवानी करते हुए महामहोत्सव के साथ उनका दक्षिण मथुरा में नगरप्रवेश करवाया। राजाधिराज राचमल्ल ने आचार्यश्री को वहाँ एक चैत्यालय में ठहराया। महाराजा राचमल्ल प्रतिदिन आचार्य सिंहनन्दी के उपदेश सुनता और उनके प्रति अगाध श्रद्धा-भक्ति रखता था। आचार्य सिंहनन्दी दक्षिण मथुरा (मदुरा) में रहते हुए सद्धर्म का अनेक वर्षों तक प्रचार-प्रसार करते रहे। आचार्य सिंहनन्दी के ३०० शिष्यों में प्रमुख शिष्य देवेन्द्रकीर्ति प्रकाण्ड पण्डित और शास्त्रज्ञ थे। सिंहनन्दि के पश्चात् देवेन्द्रकीर्ति को आचार्यपद पर अधिष्ठित किया गया। आचार्य देवेन्द्रकीर्ति का गुरुभ्राता अजितसेन भी विद्वानों में अग्रणी और महान् प्रभावक था। अजितसेन को पण्डिताचार्य के पद से विभूषित किया गया। राजा चामुण्ड-राय सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहता था।
"आचार्य देवेन्द्रकीर्ति के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी माघनन्दी (द्वितीय)को आचार्य पद प्रदान किया गया। माघनन्दी (द्वितीय)के पश्चात् उनके पट्टशिष्य नेमिचन्द्र को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया गया। आचार्य नेमिचन्द्र ने राजा चामुण्ड को प्रतिबोध दिया।
"श्रवणबेल्गोल तीर्थ तथा वहाँ मुख्य पीठ की स्थापना-एक दिन शुभ मुहूर्त में महाराजा चामुण्डराय आचार्य श्री नेमिचन्द्र और उनके शिष्यवर्ग के साथ
१०८. राजतं पीठमेतेषां पादुके दारुकल्पिते। छत्रचामरशून्यं तद्राजचिह्नमितीडितम्॥ २१६ ॥ प्रोक्त्वा तद्दापयित्वाथ तानाहूय मुनीश्वरः। आचार्यसेवका यूयमिति तेषां समब्रवीत् ॥ २१७॥
जैनाचार्य-परम्परा-महिमा।
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