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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /८९ . "इस प्रकार की व्यवस्था के अनन्तर आचार्य माघनन्दी ने उन सब बालकों को द्रव्य मुनिलिंग की दीक्षा न देकर केवल भाव-मुनित्व की ही दीक्षा दी और उच्च स्वर से उसी समय उनका नामपरावर्तन कर दिया। श्रमणधर्म की भाव-दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उन नवदीक्षित मुनियों ने क्रमशः नवीन नाम के उच्चारण के साथ गुरु के द्वारा सम्बोधित किये जाने पर अपने गुरु का वन्दन-नमन किया। आचार्य माघनन्दी ने अपने उन नवदीक्षित ७७० मुनियों को आशीर्वाद दे, उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करवाना प्रारम्भ किया। "तत्पश्चात् आचार्य माघनन्दी ने राजराजेश्वर गण्डादित्य को उन नवनिर्मित ७७० चैत्यालयों की प्रतिष्ठा करने की अनुज्ञा प्रदान की। गण्डादित्य ने स्थान-स्थान पर जाकर अति सुन्दर एवं विशाल तोरणों का निर्माण करवा नगर को सजवाया। सभी मन्दिरों के शिखरों पर इन्द्रध्वज तुल्य ध्वजाएँ लगवाईं। मन्दिरों के मुख्य द्वारों, दीवारों एवं कंगूरों पर रंगबिरंगी नितरां अतीव सुन्दर पताकाएँ लहराने लगीं। तदनन्तर महाराज गण्डादित्य ने पूर्ण ठाट-बाट के साथ उन सभी मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ करवाईं। निम्बदेव ने अभ्यर्थिजनों को यथेप्सित दान दे समस्त संघ एवं प्रजा को भी सभी भाँति सन्तुष्ट किया। "उन नूतन मुनियों का अध्ययनक्रम निर्बाध गति से उत्तरोतर प्रगति करने लगा। आचार्य माघनन्दी के चरणों में बैठकर उन नये साधुओं ने गणित, छन्द, काव्य, अलंकार, ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र, तन्त्र, शब्दशास्त्र, कवित्व, नाट्यशास्त्र, गमक, वक्तृत्वकला आदि सभी विद्याओं एवं शास्त्रों का बड़ी ही निष्ठा के साथ अध्ययन किया। इस प्रकार वे सब के सब ७७० मुनि सभी विद्याओं के पारंगत प्रकाण्ड विद्वान् बन गये। उन ७७० विद्वान् मुनियों में से १८ मुनि सिद्धान्तशास्त्रों के पूर्ण पारंगत विशिष्ट विद्वान् बने। शेष सभी मुनि तर्कशास्त्र में ऐसे निपुण हो गये कि उनके द्वारा एक वाक्य के उच्चारण मात्र से ही प्रतिवादी घबराने लग जाते थे। "एक दिन आचार्य माघनन्दी ने महाराजा गण्डादित्य को बुलाकर कहा-"निश्चक्र चक्रवर्तिन् ! आपकी सहायता एवं सहयोग से सकल शास्त्रों में निष्णात ये ७७० महाविद्वान् मुनि जिनशासन की सेवा के लिये समुद्यत एवं कृतसंकल्प हैं। जिस प्रकार भरत आदि चक्रवर्तियों ने जिनशासन का उद्धार किया, वस्तुतः उसी प्रकार आपने भी जिनशासन इयत्कालं मुनीनां हि पूर्वनामसमर्पणम्। न तथेतः परं नामान्तरमेव निरूप्यते॥ १८१॥ इति नामपरावृत्तिं कृत्वा चोच्चमपि स्फुटम्। उत्थायैते हि मुनयो नमस्कुर्वन्तु शीघ्रतः॥ १८२॥ • इत्युक्त्वाहूय तान्सर्वान् नामकीर्तनपूर्वकम् । दत्वाशिषं हि कृतवान् शास्त्रारम्भमपि स्फुटम् ॥१८३ ॥ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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