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९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ का उद्धार किया है। आपके द्वारा निर्मित ये ७७० चैत्य आज वस्तुतः प्राकृत शाश्वत चैत्यों के समान धरातल पर सुशोभित हो रहे हैं। देखा जाय तो आपका जन्म सफल हो गया है, आप कृतकृत्य हो गये हैं। वैभव, धैर्य, गाम्भीर्य आदि गुणों में आपके समान और कोई राजा दृष्टिगोचर नहीं होता।
"अब यह सुनिश्चित है कि भविष्य में इस कलिकाल में जिनशासन के प्रति निष्ठा रखनेवाले तथा सत्य-शौच-सदाचारपरायण राजा न होकर किरात, म्लेच्छ, यवन आदि हीन कुलों के दुष्ट राजा होंगे। भविष्य में श्रावक पूर्व काल की तरह धर्मनिष्ठ एवं सत्यवादी न होकर काल के कुप्रभाव से उन म्लेच्छ राजाओं के दुराचारानुकूल स्वेच्छाचारी, मूर्ख, गुरुनिंदक, महाधूर्त और कुमार्गगामी होंगे। इस प्रकार के मूर्ख, स्वेच्छाचारी एवं कुमार्गगामी श्रावकों पर केवल आचार्य ही अनुग्रह-निग्रहात्मक अनुशासन रख सकेंगे, क्योंकि उस भावीकाल में सन्मार्गगामी राजाओं का अस्तित्व तक भी नहीं रहेगा।
"इस प्रकार की अवश्यम्भावी भविष्य की स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए अब आचार्यों के पास सिंहासन, छत्र, चामरादि राजचिह्नों, भृत्यों और चाँदी, सोना आदि धन का होना परम आवश्यक है। किन्तु यह सब कुछ आपकी सहायता के बिना नहीं हो सकता। अतः आपको ही यह सब व्यवस्था करनी है। १०४
"आचार्य माघनन्दि की यह बात सुनकर नृपति गण्डादित्य ने कहा-"स्वामिन्! दिगम्बरों को यह सब किस प्रकार शोभा देगा?
"आचार्य माघनन्दी ने कहा-"सुनो राजन्! प्राचीन काल में तीर्थंकरों के भी छत्र, चामर, आकाश-गमन आदि बहिरंग अतिशय होते थे। इस सम्बन्ध में और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। समय के प्रवाह को दृष्टिगत रखते हुए केवल मत-निर्वाह अर्थात् जैन-धर्म को एक जीवित धर्म रखने के अभिप्राय से ही यह सब कुछ करना परमावश्यक हो गया है।०५। १०४.पार्थिवाज्ञानुगाः सर्वे श्रावका सत्यभाषिताः। जैनमार्गे चरन्त्यैवमुत्तरत्र न ते ततः॥ २०१॥
स्वेच्छाचाररताः मूर्खा वक्राश्च गुरुनिन्दकाः। तदा कुमार्गवशगाः श्रावका कालदोषतः॥२०२॥ इदानीं श्रावका सर्वे मनुकालमृगोपमाः। भाविनस्ते महाधूर्ताः ह्येतत्कालमृगोपमाः॥२०३ ॥ निग्रहानुग्रहौ तेषामाचार्येणैव नान्यथा। यतः सन्मार्गगा नैव वर्तन्ते पार्थिवास्ततः॥२०४॥ तदर्थं राजचिरैश्च भाव्यं भृत्यैर्धनैरपि। आचार्यस्य हि तत्सर्वं, त्वत्सहायेन नान्यथा ॥ २०५॥
जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। १०५. गुरुणोक्तं वचः श्रुत्वा नरेन्द्रः पुनरब्रवीत्। स्वामिन् ! दिगम्बराणां तच्छोभते कथमित्यपि ॥ २०६॥
शृणु राजन् पुरा तीर्थंकरादीनामपि स्थिताः। बहिरङ्गनभोयानचामरादिविभूतयः॥ २०७॥ किं स्याद्बहुप्रसङ्गेन कालशक्त्यनुसारतः। क्रियते मतनिर्वाहसिद्ध्यर्थं न तदिच्छया॥ २०८॥
जैनाचार्य-परम्परा-महिमा।
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