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८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ श्रमणधर्म में दीक्षित करने के लिये हमें देना चाहते हैं। ऐसी दशा में वे सभी बालक इसी समय से भावोपचाररूप में मुनि ही माने जाने चाहिये। अब आप स्वयं ही सोचिये कि उपचारतः मुनि कहे जानेवाले बालकों की बलिवेदि पर बलि द्वारा हत्या कर आप अपने जैनत्व को किस प्रकार बचाये रख सकेंगे?
"गण्डादित्य ने अपने गुरु आचार्य माघनन्दी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-"आचार्यवर्य! आपका कथन तो ठीक है, किन्तु राज्य और प्रजा की सुरक्षा के लिए परम आवश्यक निर्माणाधीन दुर्ग की क्या दशा होगी?
___ "आचार्य माघनन्दी ने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा-"राजन्! मैं मन्त्रशक्ति द्वारा उसका गिरना रोक दूंगा। मेरे ऊपर विश्वास कर आप उस दुर्ग की चिन्ता छोड़ दीजिये।" राजा गण्डादित्य ने कहा-"देव! मुझे आप पर अटूट आस्था है। आप इन बालकों को सहर्ष श्रमणधर्म में दीक्षित कर लीजिये।
राजा द्वारा सहमति प्रकट किये जाने पर तत्क्षण उन सब बालकों को वहाँ लाया गया। स्नान कराने के उपरान्त आचार्य माघनन्दी ने उन्हें पूर्वाभिमुख बैठा कर सब लोगों के समक्ष राजराजेश्वर गण्डादित्य से कहा-"सुनो राजन्! ये सभी बालक महापुरुषों द्वारा धारण की जाती रही श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। कहाँ तो वैराग्य के रंग में पूर्णतः रंग जाने के कारण प्रबुद्ध , धीर, वीर, गम्भीर पुरुषों द्वारा धारण किये गये पूर्ण अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह नामक अति दुष्कर पंच महाव्रत और कहाँ ये निर्बल सुकुमार बालक? तथापि देश, काल और शक्ति के अनुसार इन्हें केवल भावनिर्ग्रन्थधर्म की दीक्षा दी जा रही है। ये सब अल्पवयस्क बालक हैं, इसीलिये इन्हें द्रव्य-दीक्षा नहीं दी जा रही है। सोना, चाँदी, लोह और बैंत के वलयवाले चार प्रकार के पिच्छ माने गये हैं। लीलाप्रिय सहज बालस्वभाववश ये लोग स्वर्ण अथवा रजत-वलय के पिच्छों को इधर-उधर रख कर भूल सकते हैं, अतः इनके लिये बैंत के वलय तथा बैंत की ही डण्डी से युक्त पिच्छ उपयुक्त होंगे। आज तक यह व्यवस्था रही है कि श्रमण-दीक्षा के समय उस श्रमण का नाम वही रखा जाता था, जो कि गृहस्थजीवन में उसका नाम होता था। अब उस व्यवस्था को बदल कर श्रमणत्व अंगीकार कर लेने पर उसका पूर्व नाम न रख कर अन्य नाम रखा जायेगा।१०३
१०३. तथापि दीयते देशकालशक्त्यनुसारतः। शक्तितस्तप इत्येतत्सर्वसिद्धान्तसम्मतम् ॥ १७७ ॥
एतेषां भावनैर्ग्रन्थ्यमेव शक्ति-प्रचोदितम्। अतिबाला इमे यस्मान्न द्रव्यगमुदीरितम्॥ १७८ ॥ सौवर्णं राजतं लौहमयं वेत्रान्वितं च वा। मतं वलयपिच्छं हि यथायोग्यं न चान्यथा॥ १७९ ॥ यस्मादिमे विस्मरन्ति लीलासंकल्पचोदिताः। वेत्रदण्डान्वितं पिच्छं तस्मात्तद्वलयान्वितम्॥ १८०॥
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