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________________ अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /८७ हम सब को निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान कर दीजिये। हमारे प्राणाधार पुत्रों को बलात् पकड़-पकड़ कर राजप्रासाद में बन्द कर दिया गया है। आपने यदि हम पर दया नहीं की, तो आज ही हमारे प्राणप्यारे पुत्रों का बलिवेदी पर बलिदान कर दिया जायेगा। हम सब आपकी शरण में हैं। केवल आप ही हमारी रक्षा करने में समर्थ हैं। हम पर दया कीजिये दयासिन्धो! "श्रावकों की सब बातें सुनने के पश्चात् आचार्य माघनन्दी ने कहा-"भव्यगण! आप सब बुद्धिशाली श्रावक हो और इस बात को भली-भाँति जानते हो, समझते हो कि राजा ही विपरीत अथवा पराङ्मुख हो जाय, तो उस दशा में किया ही क्या जा सकता है? इतना सब कुछ होते हुए भी आपकी यह विनती भी टाली नहीं जा सकती, इसके लिये कोई न कोई उपाय करना होगा। _ "कुछ क्षण चिन्तन-मुद्रा में रह कर आचार्य माघनन्दी ने समागत जनसमूह को आश्वस्त करते हुए कहा-"आप लोग चिन्ता का परित्याग कर मैं जो उपाय बता रहा हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो, जिससे कि तुम्हारे पुत्रों के प्राणों को भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचे और तुम्हारी कीर्ति भी संसार में चिरकाल तक स्थायी रहे। आप लोग तो राजा के समक्ष केवल इतना ही कह देना-"राजन्! हम इन बालकों के माता-पिता अपने इन आत्मजों को सदा-सर्वदा के लिये धर्मसन्तति के रूप में श्रमणधर्म की दीक्षा हेतु धर्मसंघ को समर्पित करते हैं।" बस, आप लोगों द्वारा यह कह दिये जाने के अनन्तर शेष कार्य में स्वयं कर लूँगा। इस घोर संकट से बचने का केवल यही एक उपाय मुझे सूझ रहा है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय आपके ध्यान में हो, तो आप लोग बताओ। "आचार्य माघनन्दी का कथन सबको आशाप्रद, रुचिकर एवं प्रीतिकर लगा। उन सब का शोक क्षण भर में ही तिरोहित हो गया। कृतज्ञतापूर्ण स्वर में उन्होंने कहा-"भगवन्! समस्त कुल को पवित्र करने और संसार में कीर्ति का प्रसार करनेवाला आपका यह सभी भाँति हितकर वचन किसे प्रिय एवं ग्राह्य नहीं होगा? भगवन्! आपका यह सुखद, सुन्दर सुझाव हमें स्वीकार है, आप कृपा कर ऐसा ही करें। "श्रावक-श्राविकावर्ग की स्वीकारोक्ति सुन कर आचार्य माघनन्दी को अपूर्व आनन्द की अनुभूति हुई। उन्होंने तत्काल महाराजा गण्डादित्य को बुलवाया और कुछ क्षण उसके साथ एकान्त में परामर्श करने के पश्चात् बालकों के मातृ-पितृवर्ग को बुलाकर उनके समक्ष ही राजा गण्डादित्य को सम्बोधित करते हुए कहा-"राजन्! ये धर्मपरायण श्रावक-श्राविका-गण आप जैसे धर्मपरायण राजा के राज्य में भी किस कारण शोकाकुल हो रहे हैं? आप तो दयालु एवं धर्मपरायण हैं। ये सभी लोग अपने-अपने पुत्रों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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