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________________ ८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ "यह देख कर महाराज गण्डादित्य ने तत्काल उन सब श्रावकों को केवल ताम्बूलमात्र प्रदान क र बिदा कर दिया। उन सब को बिदा करने के पश्चात् महाराज गण्डादित्य ने अपने सेनापति निम्बदेव के साथ मन्त्रणा की और वे दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सम्मान एवं अनुदान से तो अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि होना असंभव प्रतीत हो रहा है, अतः अब किसी अन्य उपाय का आश्रय लेना अनिवार्य हो गया है। कतिपय दिनों तक समुचित उपाय के विषय में सोच-विचार करने के पश्चात् गण्डादित्य को एक उपाय ध्यान में आया। राज्य की एवं प्रजा की सुरक्षा के व्याज (बहाने) से उसने एक सुदृढ़ एवं विशाल गढ़ के निर्माण का कार्य प्रारम्भ करवाया। दिन भर जो निर्माण कार्य होता, उसे रात्रि की निस्तब्धता में नितान्त गुप्त रीति से गिरवा दिया जाता। यही क्रम कतिपय दिनों तक चलता रहा। विश्वस्त लोगों के माध्यम से जनसाधारण में सर्वत्र यह प्रचार करवा दिया गया कि राज्य एवं प्रजा की सुरक्षा के लिये यह गढ़ बनवाया जा रहा है। यह भूमि सर्वलक्षणसम्पन्न किशोरों-युवकों का बलिदान माँगती है। बलिदान न देने के कारण दिन में किया हुआ निर्माणकार्य रात्रि में ढह जाता है। "इस प्रकार का समुचित प्रचार हो. जाने के पश्चात् राजा गण्डादित्य ने अपने दण्डनायक एवं राज्याधिकारियों को आदेश दिया कि प्रजा की सुरक्षा की दृष्टि से परमावश्यक इस गढ़ के निर्माण के लिये सुलक्षण-सम्पन्न बालकों की बहुत बड़ी संख्या में बलि देना अनिवार्य हो गया है। अतः उत्तमोत्तम सुलक्षणों से सम्पन्न बालकों को चुन-चुन कर राजप्रासाद में एकत्रित किया जाय। "राजा का आदेश होते ही नागरिकों के घरों से सुलक्षणसम्पन्न बालकों को बलात् पकड़-पकड़ कर राजभवन में एकत्रित किया जाने लगा। बलि हेतु अपनेअपने बालक के बलात् पकड़ लिये जाने के कारण उन बालकों के माता-पिता करुण क्रन्दन करने लगे। नगर में सर्वत्र हाहाकार, भय और आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। "पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार कुछ पुरुषों ने उन विक्षुब्ध एवं करुण क्रन्दन करते हुए मातृपितृवर्ग को आचार्य माघनन्दी के समक्ष अपनी करुण पुकार प्रस्तुत करने का परामर्श दिया। तदनुसार वे सब लोग एकत्रित हो आचार्य माघनन्दी की सेवा में उपस्थित हुए। अपने आचार्यदेव के चरणकमलों में साष्टांग प्रणाम करते हुए उन्होंने करुण स्वर में उनके समक्ष निवेदन करना प्रारम्भ किया-"आचार्य भगवन्! आपकी छत्रच्छाया में रहते हुए भी हमें यह दुस्सह्य दारुण दुःख क्यों भोगना पड़ रहा है? अब हम इस घोर दुःख को सहन करने में असमर्थ हैं, अतः अब आप कृपा कर Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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