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________________ अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ८५ ___ "कतिपय दिनों के अनन्तर महाराजा गण्डादित्य ने एक दिन अपने नगर के श्रावकों को राज्यसभा में ससम्मान आमन्त्रित कर उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा-"महानुभावो! आप सब जैनधर्म में प्रगाढ़ निष्ठा रखनेवाले सम्माननीय श्रावक हैं। आप लोग ही वस्तुतः भवभ्रमण से उद्धार करनेवाले धर्म के आधारस्तम्भ हैं। आपके बिना धर्म का अस्तित्व संभव नहीं। क्योंकि बिना आधार के भी भला कहीं, कभी कोई आधेय अस्तित्व में रहा है? इसी कारण आप अपनी पूरी शक्ति के साथ इसके आधारभूत अवलम्बन बने हुए हैं। यह तो आप सभी भली-भाँति जानते ही हैं कि धर्म-प्रभावना, धर्म के अभ्युदय एवं अभ्युत्थान का प्रमुख अंग है और धर्म की प्रभावना शास्त्र के बिना कभी संभव नहीं। शास्त्र भी उसके ज्ञान को धारण करनेवाले सुपात्र के बिना सक्षम नहीं। ऐसी स्थिति में आपको मेरे साथ सहयोग कर शास्त्रों के ज्ञान को धारण करने में पूर्णतः समर्थ सुपात्र उपलब्ध कराने का अन्तर्मन से प्रयास करना चाहिए। यह कार्य निश्चितरूप से स्वर्ग तथा अपवर्ग का सौख्य प्रदान करानेवाला है। सर्वप्रथम मैं स्वयं धर्मसंघ को इस कार्य हेतु अपना पुत्र धर्मसन्तति के रूप में समर्पित करता हुआ आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप लोग भी अपना एक-एक पुत्र धर्मसंघ को धर्मसन्तति के रूप में समर्पित कर धर्मसंघ की, धर्मसन्तति की अभिवृद्धि में सहायक बनें।" __ "नृपति गण्डादित्य की इस घोषणा से हर्षोत्फुल्ल हो दण्डनायक ने तत्काल सबको सम्बोधित करते हुए कहा-"सबके अन्तर्मन को आनन्दित कर देनेवाली हमारे नरेश्वर की घोषणा वस्तुतः हम सबके लिये परम कल्याणकारिणी एवं अनुकरणीय है। हमें इसे अपने स्वामी के आदेश के रूप में शिरोधार्य करना चाहिये। मैं भी सहर्ष अपना एक पुत्र संघ को समर्पित करता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि आप सब भी अपना एक-एक पुत्र संघ को समर्पित कर हमारे धर्मनिष्ठ नरेश्वर का अनुसरण करेंगे।" ___ "अपने महाराजाधिराज और दण्डनायक की बात सुनकर समस्त श्रावक-समूह शोकाकुल हो गया। मन्द-सम्भाषण-पूर्वक परस्पर विचार-विमर्श कर वे श्रावकजन अत्यन्त दैन्यपूर्ण स्वर में कहने लगे-“हे नरनाथ! प्रत्युत्तर देने में तो हम समर्थ नहीं हैं, आपसे केवल प्रार्थना ही करते हैं कि पुत्रों के अतिरिक्त अन्य जो भी आप चाहें, हम से ले लें। संसार के सारभूत पदार्थ-पुत्रों को दे देने के पश्चात् हमारे पास रहेगा ही क्या? इससे तो अच्छा है कि आप हमें ही श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान करवा दीजिये। आप ही हमारे भाग्यनिर्माता हैं।" इस प्रकार सामूहिक रूप से आलाप-संलाप-प्रलाप करते हुए वे सब साष्टांग प्रणाम करते हुए भूमि पर लुण्ठन करने लगे। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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