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________________ ८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ में बोधक साधुओं को तैयार करना ही जिनशासन की प्रभावना का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है।"१०१ इस कलिकाल में लोग राजाओं के अधीन होते हैं। आज साधुओं का अभाव होता जा रहा है। अतः “राजन्! आप आगमज्ञान को धारण करने योग्य सुपात्रों को चुन-चुन कर श्रमणत्व अंगीकार करने के लिये उन्हें प्रेरणा कीजिये। और इस प्रकार साधु तैयार कर जिनशासन की प्रभावना का कार्य करिये।" . "महाराजा गण्डादित्य को अपने आचार्य का इस प्रकार का निर्देश रुचिकर लगा। उसने कुछ विचार कर कहा-"आचार्यदेव! सुपात्र कैसे होने चाहिये? सुयोग्य पात्रों के चयन के पश्चात् उन्हें शास्त्राध्ययन कराने एवं श्रमणत्व अंगीकार करने के लिये किस प्रकार कृतसंकल्प बनाना चाहिये? इस कार्य के निष्पादन के लिये आप कृपा कर मुझे आद्योपान्त पूरी विधि स्पष्टतः समझाइये।" "आचार्य माघनन्दी ने कहा-"राजन्! शास्त्रज्ञान को धारण करने के लिये योग्य सुपात्र वही है, जो स्वस्थ, निरालस्य, सुतीक्ष्णबुद्धि, उत्कृष्ट स्मरणशक्तियुक्त, सर्वकार्यकुशल, वाक्पटु और बाह्याभ्यन्तर दोनों ही दृष्टियों से विशुद्ध हो। इस प्रकार के सुपात्र को प्राप्त करने का जहाँ तक प्रश्न है, इसमें उत्कृष्ट नीतिनैपुण्य एवं सावधानी से कार्य करने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम ऐसे सुपात्र को सम्मान तथा अनुदान से आकर्षित करने का प्रयास करना चाहिये। यदि सम्मान-अनुदान से भी वह सुपात्र प्राप्त न हो सके, तो उसे फिर किसी व्याज अर्थात् प्रपंचपूर्ण उपाय से येन-केन-प्रकारेण प्राप्त कर ही लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार व्याज के माध्यम से उसका प्राप्त करना भी उसके लिए , उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए हितकर ही सिद्ध होगा। इस प्रकार संयमसाधना एवं जिनशासन की प्रभावना कर भव्य भक्त देव, देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र आदि पदों के सौख्योपभोग के अनन्तर अन्ततोगत्वा मोक्ष का अधिकारी भी हो सकता है।" १०२ "आचार्य माघनन्दी से इस प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त कर गण्डादित्य बड़ा सन्तुष्ट हुआ और सेनापति निम्बदेव एवं प्रधानामात्यादि के साथ राजप्रासाद में लौट आया। १०१. तस्माद् बोधक एवात्र मुख्य मार्गव्यवस्थितौ। बोधकेन विना किञ्चिन्न हि कार्यं जगत्त्रये॥ १२५ ॥ कार्यमस्ति समालोच्यं तद्वच्मि समनन्तरम्। प्रतिष्ठां कुरु कृत्वैतत् पूर्वं शास्त्रावलम्बनम्॥ १२९॥ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। १०२. सन्मानमनुदानं वा व्याजान्तरमसाधिते। ताभ्यां हि तदुपायं भूधवनाथाधिनायक॥ १३३॥ सुरोरगनरेन्द्राणां लब्ध्वा परमवैभवम्। मोक्षानुगमनं तस्य व्यवस्था नरनायक॥ १३४॥ जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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