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अ०८ / प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / ८३ महाराजा गण्डादित्य के आदेशानुसार स्थान-स्थान पर चैत्यों के योग्य सभी भाँति श्रेष्ठ भूमि के चयन के साथ ही चैत्यों के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया। और इस प्रकार कुछ ही समय में कोल्लापुर नगर के विभिन्न भागों में, महाराज गण्डादित्य की आकांक्षा के अनुरूप कुल मिलाकर ७७० सुन्दर चैत्यों का निर्माण सम्पन्न हुआ । अपनी इच्छा के अनुरूप चैत्य निर्माणकार्य के सम्पन्न होने पर महाराजा गण्डादित्य अपने सेनापति आदि प्रधानों के साथ आचार्य माघनन्दी की सेवा में उपस्थित हुआ। वन्दन - नमन आदि के अनन्तर महाराजा गण्डादित्य ने विनयपूर्वक आचार्य माघनन्दी से निवेदन किया - "काम-क्रोध-मद-मोह-अज्ञान तिमिर - विनाशक- दिनमणे! पूज्य आचार्यदेव ! आपके कृपाप्रसाद से ७७० चैत्यालयों का निर्माण हो चुका है। अब आप विचार कर जैसा उचित समझें, वही करें।"
“आचार्य माघनन्दी ने कहा - " राजन् ! इन विषम परिस्थितियों में तुम्हारे इस पाषाण-संग्रह पर क्या विचार किया जाय। इस विपुल व्यय का आखिर फल क्या है ? १००
“आचार्य माघनन्दी की बात सुनकर गण्डादित्य भयोद्रेक से क्षण भर के लिए अवाक् रह गया। अपने आपको आश्वस्त कर उसने कहा - " आचार्यप्रवर! इससे बढ़कर अन्य और क्या शुभ काम है? मैं तो इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता। कृपा कर आप ही बताइये । क्योंकि गुरु का उपदेश ही गृहस्थों के लिये मार्गदर्शक, आदर्श और आचरणीय है । "
" गण्डादित्य के मुर्झाये हुए मन को उल्लास से आपूरित करते हुए मन्द मुस्कान के साथ आचार्य माघनन्दी ने कहा - " राजन् ! आराधकों के अभाव में, भला आज तक कहीं आराध्य अस्तित्व में रहे हैं? जिनबिम्ब आराध्य हैं और उनकी आराधना के लिए भव्य आराधकों की आवश्यकता सदा रहती है। लोगों को बोध दिया जायगा, तभी तो वे प्रबुद्ध हो जिनदेव के आराधक बनेंगे। यह तो तुम जानते ही हो कि संसार में तीर्थंकर भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई भी भव्य स्वयंबुद्ध नहीं होता । लोगों को धर्म का बोध कराने के लिये साधुओं की, धर्मोपदेशकों की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। भव्यजन - प्रतिबोधक साधुओं के अभाव में लोगों को बोध कैसे होगा और वे नाराधक साधक किस प्रकार बनेंगे? साधुओं के अभाव की आज की स्थिति
१००. इत्युक्ते नरपाले हि मुनीन्द्रोऽप्यब्रवीत् पुनः ।
इदानीमवधार्यं किं तव पाषाणसङ्ग्रहे॥ ११८॥ फलमेतेन व्ययेनेति प्रचोदिते ।
किमस्ति
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॥ ११९ ॥ जैनाचार्य - परम्परा - महिमा |
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