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८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ पर हाथ साफ किया करें।" (जैनहितैषी / भाग११ / अंक १०-११ / श्रावण-भाद्र / वीर नि० सं० २४४१/ पृ. ६५६-६५८)।
_'प्रेमी' जी ने आगे लिखा है-"इस समय भट्टारकों के चातुर्मास हो रहे हैं। शायद ही ऐसा कोई भट्टारक हो, जिसका खर्च २०-२५ रुपये रोज से कम हो। ये सब रुपये निरीह भोले श्रावकों से वसूल किये जाते हैं। एक-दो स्थानों से हमें जो समाचार मिले हैं, उनसे बड़ा ही दुःख होता है और भट्टारकों पर बड़ी ही घृणा उत्पन्न होती है। इन लोगों ने अब बडा ही करालरूप धारण किया है। ये श्रावकों के द्वारों पर धरणा देकर बैठते हैं, लंघनें करते हैं, कमंडलु फोड़ते हैं और जब इससे भी काम नहीं चलता है, तब अपने गरीब सिपहियों से श्रावकों को पकड़वाते और पिटवाते तक हैं। गरज यह कि जब तक रुपया नहीं पा लेते, तब तक श्रावकों का पिण्ड नहीं छोड़ते हैं। भाइयो! यह क्या है? जैनधर्म की इससे अधिक दुर्दशा और क्या हो सकती है?" ग्रामीण अज्ञानी श्रावकों में यद्यपि इस विपत्ति से बचने की शक्ति नहीं है, परन्तु हमारे समाज के शिक्षित चाहें तो इस मर्ज का तात्कालिक उपाय हो सकता है। प्रयत्न करने से, आन्दोलन करने से, सब लोगों की सम्मति से ये लोग अनधिकारी ठहराये जा सकते हैं और गवर्नमेन्ट के द्वारा इस तरह के अत्याचार करने से रोके जा सकते हैं। हम आशा करते हैं कि हमारे गुजराती भाई इस विषय में आगे बढ़ने का साहस दिखलायेंगे।"(जैनहितैषी / भाग ११ / अंक १०-११ / श्रावाणभाद्र / वीर नि० सं० २४४१ / पृ. ६६१)।
'दिगम्बर जैन नरसिंहपुरा नवयुवक मण्डल, भीण्डर (मेवाड़)' के मन्त्री ने (अपना नाम नहीं दिया) भट्टारक चर्चा (तारीख १८-१०-४१) नाम की लघु पुस्तिका का लेखन और प्रकाशन किया है। उसमें उन्होंने अपनी जाति के भट्टारक जशकीर्ति का चरित्र वर्णित करने वाली निम्न काव्यपंक्तियाँ प्रकाशित की हैं
नाममात्र को साधू बनकर शाही ठाठ दिखाते हैं। बैठ पालकी श्रावक के घर भोजन करने जाते हैं। श्रावकजन से निज चरणों की पूजन भी करवाते हैं। करें याचना पैसे की, कम हो तो शीश हिलाते हैं। जो पैसे की कमी होय तो अन्तराय कर आते हैं।
फिर श्रावक की खैर नहीं, नीचा उन्हें दिखाते हैं। कविवर गुणभद्र जी द्वारा रचित जैनभारती नामक पुस्तक के निम्न पद्य भी उक्त पुस्तिका में उद्धृत किये गये हैं
एक दिन अकलङ्क से विद्वान् भट्टारक हुए, निज शक्ति से जो लोक में प्रभुधर्म-संचालक हुए।
निज
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