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अ०८/प्र०४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /८१ हा! आज भट्टारक यहाँ रखते परिग्रह भार को, मृगराज की उपमा अलौकिक मिल रही मार्जार को॥
है धर्मरक्षक नाम, पर ये धर्मभक्षक बन रहे, संसार के आडम्बरों में ये यों अधिकतर सन रहे। हैं वस्त्र इनके देख लो रंगीन रेशम के बनें, पिच्छी-कमण्डलु भी अहो! इनके सदा मनमोहने ।
गद्दे तथा तकिये भरे रहते सुकोमल तूल से, सादा नहीं आहार करते वे कभी भी भूल से। बस पुष्टमिष्ट गरिष्ठ ही इनका सदा आहार है, पड़ती भयंकर रात को इन पर मदन की मार है।
मुनिधर्म का भी स्वाँग धरना प्रेम से आता इन्हें, उल्लू बनाना श्रावकों को भी सदा भाता इन्हें। निज मन्त्रतन्त्रों से डराना दूसरों को जानते, हा! धर्म के ही नाम पर ये पाप कितना ठानते॥
कर प्रेरणा अत्यन्त ही पूजा करायेंगे कभी, निःशङ्क तब निर्माल्य, अपना ही बनायेंगे सभी। पूजा प्रतिष्ठा एक भी होती नहीं इनके बिना, होती बड़े ही ठाठ से इनकी मनोहर भावना॥
दश पाँच नौकर तो गुरु रखते सदा ही संग में, हा! हा! रँगे रहते अलौकिक ही निराले रंग में। ये श्रावकों को दे सकेंगे हाय! कारागार में,
प्रभु ने इन्हें क्या दे दिया है विश्व यह अधिकार में॥ इन काव्य-पंक्तियों में भट्टारकों की कुछ और प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला गया है। उदाहरणार्थ, वे जिस श्रावक के घर भोजन करने जाते थे उनसे स्वयं ही भेंट देने की याचना करते थे। श्रावकों को मन्त्र-तन्त्र का भय दिखलाकर अपने आदेश का पालन करवाते थे। उन्हें बड़ी-बड़ी पूजाएँ करवाने के लिए बाध्य करते थे तथा उनमें चढ़ाये गये द्रव्य तथा अन्य सामग्री को अपने साथ ले जाते थे। वे श्रावक को स्वयं पूजा आदि धार्मिक क्रियाएँ नहीं करने देते थे, उनके द्वारा ही करवानी पड़ती थीं।
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