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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / ७९ का सूर्य इस समय मध्याह्न पर पहुँचा हुआ है। अब आप मोतीलाल नहीं, किन्तु श्री १०८ भट्टारक विजयकीर्ति जी महाराज कहलाते हैं। आपके साथ इस समय गाड़ी, घोड़ा, पालकी आदि सारे राजोचित साजबाज हैं। शास्त्री, चपरासी, हवलदार, रसोइया, नाई, धोबी, खिदमतगार आदि २० - २५ नौकर-चाकर हैं। जरी और मखमल के वस्त्रों का उपयोग करके आप अपने पूर्वनिर्ग्रन्थों की दरिद्रता के दोष को दूर कर रहे हैं । आपका प्रतिदिन का खर्च पच्चीस-तीस रुपया रोज है। इस समय आप बाकरोल नामक ग्राम में आनन्द कर रहे हैं और शायद चातुर्मास भर वहीं रहेंगे। ग्राम में जैन भाइयों के सिर्फ ३० घर हैं, जिनकी आर्थिक अवस्था बहुत मामूली है, पर मामूली होने से ही क्या हो सकता है? श्रावक होने का फल तो उन्हें कुछ न कुछ मिलना ही चाहिए। गवर्नमेंट जिस तरह आवश्यकता पड़ने पर किसी स्थान में प्यूनीटिव पुलिस बिठा देती है और उसका खर्च वहाँ के रहनेवालों से बसूल करती है, उसी तरह हमारा धर्म भी जिस स्थान के श्रावकों के लिए आवश्यक समझता है, उस स्थान पर इस पाखण्ड - पुलिस को भेज देती है, जो श्रावकों की अक्ल को बहुत जल्द ठिकाने लगा देती है । "जिस समय ब्रह्मचारी मोतीलाल जी ईडर की गद्दी पर बैठने के लिए उम्मीदवार हो रहे थे, उस समय आपने पूज्य पं० पन्नालाल जी बाकलीवाल को एक प्रतिज्ञापत्र लिख कर दिया था। गुरुजी (पं० पन्नालाल जी) ने अब उक्त प्रतिज्ञापत्र सार्वजनिक पत्रों में प्रकाशित करवा दिया है। उसमें लिखा है कि " मैं भट्टारक होने पर ईडर तथा सागवाड़ा आदि के प्राचीन शास्त्र भण्डारों का जीर्णोद्धार कराऊँगा, उनके प्रचार के लिए अर्थव्यय करूँगा, अपने उपासक श्रावकों के प्रत्येक ग्राम में पुस्तकालय खोलूँगा, पाठशालाएँ स्थापित करूँगा, उपदेशकों, समाचारपत्रों और ग्रन्थमालाओं के द्वारा धर्म का प्रचार करूँगा । यदि मैं ऐसा न करूँ और कोई धर्मविरुद्ध या नीतिविरुद्ध कार्य करूँ, तथा तीन बार चेतावनी देने पर भी न मानूँ, तो आप लोग और रायदेश के पंच मुझे जो सजा देंगे, उसे मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा ।" हमारा विश्वास है कि मोतीलाल जी इसी प्रतिज्ञापत्र की कृपा से ही आज अपनी पाँचों अँगुली घी में तर कर रहे हैं। यदि गुरुजी को वे प्रतिज्ञापत्र के द्वारा धर्मप्रचार का विश्वास न दिलाते और गुरुजी सिफारिश न करते, तो यह चार दिना की चाँदनी उन्हें लभ्य न होती, परन्तु ऐसे अच्छे मौके को मोतीलाल जी जैसे पुरुषरत्न कैसे चूक सकते थे? और गुरुजी जैसे दुनिया की चालबाजियों से सर्वथा अज्ञान और मनुष्यप्रकृति को न पहचाननेवाले भोले धर्मप्रचाराभिलाषी भी क्या बार-बार मिलते हैं? आपने गुरुजी को बना लिया और लिख दिया प्रतिज्ञापत्र । अब गुरुजी और रायदेश के पंच उक्त प्रतिज्ञापत्र को शहद लगा चाँटा करें और भट्टारक जी महाराज अपनी चालबाजी पर खुश होते हुए हलुआ-पूड़ियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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