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________________ ७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०४ ४.५. राजोचित वैभव एवं प्रभुत्व तथा ऐश्वर्यमय निरंकुश जीवनशैली यद्यपि भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त होना ही चल-अचल परिग्रह का स्वामी बनना है, पर प्रारंभ के भट्टारकों के पास उतना वैभव नहीं था, जितना बाद के भट्टारकों के पास हो गया। फलस्वरूप प्रारंभिक भट्टारकों की जीवनशैली में सादगी रही होगी। किन्तु उनके वैभव में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई और उनकी जीवनशैली भी छोटेमोटे राजाओं के समान विलासितापूर्ण हो गई। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व के भट्टारकों के वैभव और जीवनशैली पर प्रकाश डालते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं "यद्यपि वे अपने को निर्ग्रन्थमार्ग के उपासक बतलाते हैं, परन्तु उनका वैभव एक छोटे-मोटे राजा से कम नहीं होता है। उनकी सवारी के लिए पालकी होती है, बैठने के लिए ऊँची गद्दी वा सिंहासन होता है, दौरे में अर्दली की चपरास लगाये हुए कई सिपाही होते हैं, तर माल खिलानेवाला रसोइया होता है, लाखों की दौलत होती है, गरज यह कि ऐहिक भोगों की सहायक जितनी सामग्री चाहिए, वह सब होती है। यदि नहीं होता है, तो कहने-सुनने को एक स्त्रीरत्न नहीं होता है। न जाने इतनी कसर क्यों रख छोड़ी गई है।" ९७ इसी समय (सन् १९१० ई०) के एक दक्षिणदेशीय भट्टारक की जीवनपद्धति का विवरण प्रेमी जी ने इन शब्दों में दिया है-"महाराज का वेषविन्यास समयानुसार कई प्रकार का होता है। जब आप घोड़े की सवारी करते हैं, तब जाकेट, पायजामा आदि पहिनते हैं, सिर पर एक जरी का कीमती फैंटा बाँधते हैं और हाथ में एक चाबुक रखते हैं। धर्मसम्बन्धी कार्यों के समय बहुमूल्य भगवाँ वस्त्र पहिनते हैं। कभीकभी जरी की धोती पहिनते हैं। बढ़िया शाल ओढ़ते हैं। हाथ में सोने की 'पहुँची' और मुद्रिका पहनते हैं। खड़ाऊँ लकड़ी की, सोने की, अथवा चाँदी की पहिनते हैं। कमण्डलु चाँदी का और मयूरपिच्छी सोने की रखते हैं। चाँदी के वर्तनों में भोजन करते हैं। इतर, तेल-फुलेल का व्यवहार भी करते हैं। रसोई के लिए एक स्त्री रहती है। इस तरह महाराज के पास सारा महाराजोचित परिग्रह रहता है।"९८ गुजरात की ईडरपीठ पर आसीन स्वसमकालीन भट्टारक विजयकीर्ति की सुकीर्ति का वर्णन करते हुए 'प्रेमी' जी कहते हैं-"हितैषी' के पाठक, ब्रह्मचारी मोतीलाल के शुभनाम को भूले न होंगे। आजकल आपके बड़े ठाठबाट हैं। आपके सुखसौभाग्य ९७. वही / भाग ७ / अंक ९ / पृष्ठ २३ / आषाढ़, वीर नि० सं० २४३७ । ९८. वही / भाग ७ / अंक १०-११ / पृष्ठ २ / श्रावण-भाद्र, वीर नि० सं० २४३७ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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