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________________ अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /७७ सम्पन्न करायी जा सकती हैं। पूर्वकालीन भट्टारक गृहस्थों के षोडश संस्कार, गृहशुद्धि, गृहप्रवेश, सिद्धचक्रादि-पूजन, शान्तिविधान, हवन, पंचकल्याणक, वेदीप्रतिष्ठा आदि सम्पूर्ण कर्मकाण्ड सम्पन्न कराते थे। धार्मिक और सामाजिक नियमों, रीतिरिवाजों तथा अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने पर गृहस्थों को अर्थदण्ड, सामाजिक भोज, जातिबहिष्कार आदि की सजाएँ देते थे। गृहस्थों के पारस्परिक विवादों को निपटाते थे। मंत्र-तंत्र द्वारा भक्तों का अनिष्टनिवारण, ज्योतिष द्वारा मुहूर्तशोधन, श्रावकों के भविष्य की घोषणाएँ, तथा आयुर्वेद के प्रयोग द्वारा लोगों का रोगनिवारण आदि कार्य भी करते थे। भट्टारकपीठ की सम्पत्ति का प्रबन्ध, खेती-बाड़ी आदि की देखभाल तथा धार्मिक उत्सवों का अनुष्ठान भी उनके कर्तव्यों में शामिल था। इस तरह गृहस्थों के धर्मगुरु एवं पुरोहित (पण्डिताचार्य) या धर्माधिकारी के रूप में कार्य करना ही भट्टारकों की अधिकृत भूमिका थी। ४.४. दक्षिणा-चढ़ावा-भेंट-शुल्क आदि से अर्थोपार्जन गृहस्थों के उपर्युक्त कार्यों के सम्पादन से भट्टारकों को उनसे यथाभिलषित दक्षिणा प्राप्त होती थी। उनके दर्शनार्थ मठ में जाने पर उन्हें यथेष्ट चढ़ावा मिलता था तथा जब वे श्रावकों के घर भावना (भोजन) के लिए जाते थे तब उन्हें उपकृत करने के उपलक्ष्य में उनसे अच्छी खासी भेंट भी उपलब्ध करते थे। प्रत्येक घर से नियमित वार्षिक कर भी भट्टारकों को दिया जाता था।५ एक वर्तमान (सन् १९१० ई० के)भट्टारक के आयस्रोतों का विवरण देते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं "महाराज के कमण्डलु-पूजन का कर एक रुपया है। भोजन की दक्षिणा कम से कम साढ़े तीन रुपया है। दक्षिणा न देने से अथवा ऐसा ही और कोई अपराध करने से श्रावक को जाति से बहिष्कृत होना पड़ता है। वह जाति में शामिल तब हो सकता है, जब आदेशित दण्ड देवे। --- महाराज को गृहस्थों के संस्कारकर्मों में भी द्रव्यप्राप्ति होती है, जैसे बालक के कान फूंकने की फीस सवा रुपया ली जाती है। --- यदि किसी को अपने यहाँ जल्से में जागरण कराना होता है, अर्थात् हिजड़े आदि नचाना होते हैं, तो उसके लिए महाराज को तीन रुपया दण्डस्वरूप पहिले भेंट देकर आज्ञा लेनी पड़ती है। महाराज छोटे-छोटे मुकद्दमें भी कुछ फीस लेकर ले लेते हैं और उनमें कोशिश करके किसी एक पक्ष की जीत करा देते हैं।"९६ इन स्रोतों के अतिरिक्त श्रीमानों और राजाओं से दान में प्राप्त भूमि आदि तथा खेती-बाड़ी से भी आय होती थी। ९५. पं० नाथूराम प्रेमी / जैनहितैषी/भाग ७ / अंक ९/ पृष्ठ २३/ आषाढ़, वीर नि० सं०२४३७ (ई० सन् १९१०)। ९६. वही / भाग ७ / अंक १०-११ । पृष्ठ १-२ / श्रावण-भाद्र, वीर नि० सं० २४३७ (ई०सन् १९१०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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