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७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ हूमड़-इतिहास (भाग २) में उल्लेख है कि "जैन समाज में इस वक्त जो जातियाँ हैं, इनकी स्थापना दसवीं सदी के करीब हुई थी, ऐसा विद्वानों का अनुमान है।--- यद्यपि भट्टारक जातिभेद से ऊपर होते थे, फिर भी विरुदावलियों में उनकी जाति का अनेक बार उल्लेख हुआ है।--- इसी प्रकार यद्यपि भट्टारकों के शिष्यवर्ग में सम्मिलित होने के लिए किसी विशिष्ट जाति का होना आवश्यक नहीं था, तथापि बहुतायत से एक भट्टारकपीठ के साथ किसी एक ही विशिष्ट जाति का सम्बन्ध रहता था। बलात्कारगण की सूरत शाखा से हूमड़ जाति, अटेर शाखा से लमेचू जाति, जेरहट शाखा से --- जाति तथा दिल्ली, जयपुर शाखा से खण्डेलवाल जाति का विशेष सम्बन्ध पाया जाता है।" ९४
जैनहितैषी मासिक पत्र (भाग ११ / अंक १०-११ / श्रावण-भाद्र, वीर नि० सं० २४४१ / पृष्ठ ६५८) में 'विविध प्रसङ्ग' के लेखक ने लिखा है कि "लातुर (निजाम)' में शेतवाल जाति के भट्टारकों की एक गद्दी है। वह अभी तक खाली थी।--- अब उक्त गद्दी पर एक बालक बिठा दिया गया है।"
भट्टारकचर्चा नामक लघु पुस्तिका (दि० १८.१०.४१) के लेखक-प्रकाशक, जो दि० जैन नरसिंहपुरा नवयुवक मण्डल, भीण्डर, मेवाड़ के मन्त्री थे, पृष्ठ ४ पर लिखते हैं-"हम नरसिंहपुराजाति-बन्धुओं के साथ भी भट्टारक जशकीर्ति जी का सम्बन्ध है। आप नरसिंहपुराओं के भट्टारक कहलाते हैं।"
अभिप्राय यह कि भट्टारकपीठ पर बैठालने के लिए ही भट्टारकदीक्षा होती थी और भट्टारकपद पर दीक्षित पुरुष ही भट्टारक कहलाता था। इसलिए जिस मठवासी मुनि की भट्टारकपद पर दीक्षा नहीं होती थी, वह 'भट्टारक' शब्द से अभिहित नहीं होता था। ४.३. धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकारों का आरोपण
भट्टारकपीठ पर अभिषिक्त पुरुष को गृहस्थों के धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकार प्रदान कर दिये जाते हैं। यह भट्टारकों के साथ जुड़ी हुयी 'स्वामी', 'जगद्गुरु' 'पण्डिताचार्य', 'कर्मयोगी' आदि उपाधियों से सूचित होता है। धर्मगुरु बन जाने से वह गृहस्थों को धर्म के विषय में निर्देश देता है, विभिन्न प्रकार के व्रतों, अनुष्ठानों, पूजाओं और प्रायश्चित्तों को करने का आदेश देता है, धर्म का ज्ञान कराता है। पण्डिताचार्य के अधिकार प्राप्त हो जाने से गृहस्थों की धार्मिक क्रियाएँ केवल उसी के द्वारा
९४. 'हूमड़ जैन समाज का सांस्कृतिक इतिहास'/ भाग २ / पृष्ठ २१८ / सम्पादिका-श्रीमती
कौशल्या पंतग्या।
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