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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / ७५ जी का वेटा राव किरपाराम जी का वेटा पोता या पांच मिलि पंचामृत कलशाभिषेक कस्यो। पाछै सर्वोषधि कलशाभिषेक कीयो पाछै नगन ही ठाकुरजी को दरसण कीयो । आंजली जैतराम जी साह भरी । पाछै आसिका दीनी पंचानै लुगाया नै । पाछै नगन ही सभा में सांघासण (सिंहासन) उपरि आय विराज्या । पाछै धर्मोपदेश दीयो । पाछै सगला (सब) पंच मिलि अरज करो सो अबार (यह ) समय नगन (नग्न) को नहीं तिसौ कपडा लीजे। पाछै बकसीजी पछेवडी दीनी । पाछै जैतराम जी साहजी सालू धोवती दीनी । आप पहरी ( पहनी ) । पाछै आपको नांव (नाम) नरेन्द्रकीर्तिजी स्थापन हुवो । पाछै आप मून (मौन) धारी । पाछै आमैरि का वजार (बाजार ) का पंच दुसालो ऊढायो । पाछै सांगानेर का वाजार का पंच मिलि दुसालो ऊढायो । पाछै दरबार को दुसालो दरोगा विसनजी लेरि आया सो ऊढायो । पाछै आंमैरि का पंचा को दुसालो ऊढ्यौ पाछै कोटा का पंचा को दुसालो आयो सो ऊढ्यो । पाछै दि० (दीवान) संघही मनालाल जी दुसालो ऊढायो, धोवती दीनी । पाछै संघही हुकुमचंद जी दुसालो ऊढायो । पाछा सांगानेर का पंचा दुसालो ऊढायो। पाछै चाटसू का पंचा मिलि दुसालो ऊढायो । पाछै भागचन्दजी रायन फरद १ ऊढाई। पाछै कोसीकलां का पंचा मिलि दुसालो ऊढायो । पाछै सलेमाबाद का महंत को दुसालो आयो । पाछै दि० जैचंद जी का पोता को सालू १ आया। भट्टारक जी का पदस्थ का बैठवा का महूर्त काढ्यो जदि (जब) सारा गावां ने कागद गया पंचा का नांव (नाम) का सवाई जैपुर (जयपुर) का पंच लिष्या ( लिख्या) आपका नांवां का। ,,९३ यह ध्यान देने योग्य है कि मुनिदीक्षा या आचार्यदीक्षा किसी स्थानविशेष या जातिविशेष के धर्मपीठ ( धार्मिक गतिविधियों के संचालन का नियत केन्द्र, वस्तुतः धर्माधिकारी की नियत निवासभूमि) पर बैठालने के लिए नहीं दी जाती है, किन्तु भट्टारकदीक्षा स्थानविशेष के, बल्कि प्रायः स्थानविशेष की जातिविशेष के भट्टारकपीठ पर नियुक्त करने के लिए दी जाती थी। इसके लिए पहले भट्टारकपीठ (पट्ट या गद्दियाँ) स्थापित किये जाते थे, फिर उन पर बैठालने के लिए किसी पासत्थ- कुसील मुनि अथवा गृहस्थ युवा या बालक को भट्टारक दीक्षा दी जाती थी। इसीलिए वे अमुक पीठ के भट्टारक या अमुक जाति के भट्टारक नाम से प्रसिद्ध होते थे, जैसे ईडर के भट्टारक, नागौर के भट्टारक, शेतवालों के भट्टारक, नरसिंहपुरों के भट्टारक, इत्यादि । "" ९३. जयपुर के मन्दिर - पाटौदी के संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण बही से " दि० जैन अतिशयक्षेत्र श्री महावीर जी का संक्षिप्त इतिहास एवं कार्यविवरण' इस ग्रन्थ में उद्धृत । लेखक - डॉ० गोपीचन्द्र वर्मा, बाँसवाड़ा/ प्रकाशक - रामा प्रकाशन २६३६, रास्ता खजानेवालान, जयपुर। (मूलपाठ में पूर्णविराम एवं कोष्ठक शब्दों के हिन्दी रूप प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ने दिये हैं) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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