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________________ अ०८/प्र०४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /७३ इन पंक्तियों में पण्डित जी ने भी मठवास के साथ वस्त्रधारण को ही भट्टारकप्रथा के प्रारम्भ का प्रमुख हेतु बतलाया है। किन्तु प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर ने भट्टारकसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की १३वीं शती में (भट्टारकसम्प्रदाय/ प्रस्तावना / पृ.४) और पं० नाथूराम जी प्रेमी ने १४वीं शती ई० में बतलायी है, वह समीचीन नहीं है। पूर्वोद्धृत जिनप्रतिमालेखों से सिद्ध होता है कि भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शताब्दी में हो गया था। निष्कर्ष यह कि दिगम्बरजैन परम्परा में अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु के अर्थ में अर्थात् सम्प्रदायविशेष के व्यक्ति के अर्थ में भट्टारक शब्द का प्रयोग १२वीं शती ई० में उस समय प्रचलित हुआ, जब पासत्थादि दिगम्बरजैन मुनि अजिनोक्तसवस्त्रसाधुलिंग धारण कर दिगम्बरजैन गृहस्थों के अनधिकृत धर्मगुरु बन गये थे। इस तरह भट्टारकसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की १२ वीं शताब्दी में हुई थी। अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी-धर्मगुरु भट्टारकों के असाधारणधर्म यद्यपि ऊपर वस्त्रधारण और मठों में नियतवास इन दो धर्मों को धर्मगुरु भट्टारकों का असाधारणधर्म बतलाया गया है, तथापि मठादि में नियतवास भट्टारकों का असाधारणधर्म नहीं है, क्योंकि वह मठवासी मुनियों में भी था। आज भी अनेक मुनि तीर्थस्थानों या अन्य स्थानों में नियतवास करते हैं, पर वे भट्टारकपीठ के स्वामी न होने तथा भट्टारककर्म न करने से भट्टारक नहीं कहलाते। हाँ, मठ में नियतवास भट्टारकों का अनिवार्य धर्म अवश्य है। अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग धारण करनेवाले भट्टारकों के अनेक असाधारण धर्म हैं, जो अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग सुनिश्चित करते हैं। उनका प्ररूपण नीचे किया जा रहा है। तथा त्रिलोकसार तथा पुराणसर्वे तथा आगम तथा अध्यात्म इत्यादि सर्वशास्त्र पूर्वदेशमाहे रहीने वर्ष ८ माहे भणीने श्री वाग्वर गुजरात माहे गाम खोडेषे पधार्या, वर्ष ३४ संस्था थई तीवारे सं० १४७१ ने वर्षे --- साहा श्रीयौचाने गृहे आहार लीधौ। तेहा थकी वाग्वरदेश तथा गुजरात माहे विहार कीधौ। वर्ष २२ पर्यन्त स्वामी नग्न हता जुमले वर्ष ५६ पर्यन्त आवर्या भोगवीने धर्मप्रभाववीने संवत् १४९९ गाम मेसाणे गुजरात जईने श्री सकलकीर्ति आचार्य हुआ (भुआ)--- पीछे श्री नोगामे संघे पदस्थापना करी।" जैनसिद्धान्त भास्कर / भाग १३/किरण २ / पृ० ११३ (वीरवर्धमानचरित / भट्टारक सकलकीर्ति। प्रस्तावना / पृ०५)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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