________________
७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ४
प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर ने माना है कि १३वीं शताब्दी ई० में मठवासी मुनियों के वस्त्र धारण प्रारम्भ कर देने पर भट्टारकपरम्परा अस्तित्व में आयी थी । और उन्होंने भट्टारक परम्परा के दो ही प्रमुख लक्षण बतलाये हैं : मठवास और वस्त्रधारण वे लिखते हैं
" साधुसंघ की साधारण स्थिति से यह परम्परा पृथक् हुई, इसका पहला कारण वस्त्रधारण था । भट्टारकपरम्परा का दूसरा विशिष्ट आचरण मठ और मन्दिरों का निवास स्थान के रूप में निर्माण और उपयोग था। इसी के अनुषंग से भूमिदान को स्वीकार करने और खेती आदि की व्यवस्था भी भट्टारक देखने लगे थे।
इन दो प्रथाओं के कारण भट्टारकों का स्वरूप साधुत्व से अधिक शासकत्व की ओर झुका और अन्त में यह प्रकटरूप से स्वीकार भी किया गया। वे अपने को राजगुरु कहलवाते थे और राजा के समान ही पालकी, छत्र, चामर, गादी आदि का उपयोग करते थे। वस्त्रों में भी राजा के योग्य जरी आदि से सुशोभित वस्त्र रूढ़ हुए थे। कमण्डलु और पिच्छी में सोने-चाँदी का उपयोग होने लगा था। यात्रा के समय राजा के समान ही सेवक-सेविकाओं और गाड़ी घोड़ों का इन्तजाम रखा जाता था तथा अपने-अपने अधिकार क्षेत्र का रक्षण भी उसी आग्रह से किया जाता था। इसी कारण भट्टारकों का पट्टाभिषेक राज्याभिषेक की तरह बड़ी धूमधाम से होता था । इसके लिए पर्याप्त धन खर्च किया जाता था, जो भक्त श्रावकों में से कोई करता था। इस राजवैभव की आकांक्षा ही भट्टारकपीठों की वृद्धि का एक प्रमुख कारण रही।" ( भट्टारकसम्प्रदाय / प्रस्तावना / पृ. ४-५ ) ।
इस प्रकार मान्य जोहरापुरकर जी का भी यही मत है कि सवस्त्रलिंग और मठवास ये दो ही भट्टारकसम्प्रदाय के असाधारणधर्म हैं, जो भट्टारकों को मठवासी मुनियों से पृथक् करते हैं।
पण्डित हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री वि० सं० १८०५ में लिखे गये एक ऐतिहासिक पत्र ११ के आधार पर भट्टारक सकलकीर्ति (वि० सं० १४४३ - १४९९ ) का जीवन परिचय देते हुए लिखते हैं- " यतः ऐतिहासिक पत्र में २२ वर्ष नग्न रहने का स्पष्ट उल्लेख है और ('भट्टारकसम्प्रदाय' ग्रन्थ के ) लेखांकों (३३१-३३४) के अनुसार सं० १४९७ तक प्रतिष्ठादि कराना भी सिद्ध होता है, उससे यही सिद्ध होता है कि सकलकीर्ति अपने जीवन के अन्तिमकाल में भट्टारकीय वेश के अनुसार वस्त्रधारी हो गये थे । " (वर्धमानचरित / प्रस्ता. / पृ. ६) ।
९०. मिलापचन्द्र कटारिया : जैन निबन्ध रत्नावली / द्वितीयभाग / पृ०१४० । ९१. " आचार्य श्री सकलकीर्ति वर्ष २६ छविसती संस्थाह तथा तीवारे संयम लेई वर्ष ८ गुरापासे रहने व्याकरण २ तथा ४ काव्य ५ तथा न्यायशास्त्र तथा सिद्धान्तशास्त्र गोम्मटसार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org