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अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /७१
यहाँ एक बात विचारणीय है। पं० आशाधर जी ने एक ओर जिनप्रतिमा और जिनगृह के साथ मठ (मुनियों के लिए वसतिका) तथा स्वाध्यायशाला (ग्रन्थालय) आदि के निर्माण की आवश्यकता बतलाई है, दूसरी ओर मठपति मुनियों को म्लेच्छवत् आचरण करनेवाला कहा है, इसका क्या रहस्य है? ८७ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि 'मठ' शब्द का अर्थ है मुनियों की वसतिका। इसे पं० आशाधर जी ने श्रमणों की धर्मसाधना का आश्रमपद (निवास स्थान) भी कहा है।८ इसी दृष्टि से आचार्य जयसेन ने मठ-चैत्यालय आदि को व्यवहारनय से 'आश्रम' नाम दिया है।८९ श्रमणों को कुछ विशेष स्थितियों में कुछ समय के लिए उपयुक्त स्थान पर स्थायी वास करने की आवश्यकता होती है, जैसे चातुर्मास काल में, संघ के किसी मुनि की सल्लेखना के समय, किसी विशिष्ट ग्रन्थ के लेखन या अध्ययन के समय तथा किसी विप्लव या उपद्रव के समय। इन अवसरों पर मुनियों का मठ-चैत्यालयों में दीर्घवास दोषपूर्ण नहीं है। किन्तु प्राचीनकाल में कुछ मुनि उनमें नियमितरूप से वास करने लगे और उन पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया, खेतीबाड़ी और उससे उत्पन्न अनाज का व्यापार करना शुरू कर दिया। इस तरह का भ्रष्ट आचरण करनेवाले मुनियों को पं० आशाधर जी ने म्लेच्छों की उपमा दी है।
८७. क- निर्माप्यं जिनचैत्यतद्गृहमठस्वाध्यायशालादिकं,
श्रद्धाशक्त्यनुरूपमस्ति महते धर्मानुबन्धाय यत्। हिंसारम्भविवर्तिनां हि गृहीणां तत्तादृगालम्बन
प्रागल्भीलसदाभिमानिकरसं स्यात्पुण्यचिन्मानसम्॥ २/३५॥ सागारधर्मामृत।
ख-"अन्ये पुनर्द्रव्यजिनलिङ्गधारिणो मुनिमानिनोऽवशिनोऽजितेन्द्रियः सन्तस्तां तथाभूतामार्हती मुद्रां बहि:शरीरे न मनसि श्रिताः प्रपन्ना आविशन्ति सङ्क्रामन्ति विचेष्टयन्तीत्यर्थः। कम्? लोकं धर्मकामं जनम्। किंवत् ? भूतवद् ग्रहैस्तुल्यम्। अपरे पुनर्द्रव्यजिनलिङ्गधारिणो मठपतयो म्लेच्छन्ति म्लेच्छा इवाचरन्ति। लोकशास्त्रविरुद्धमाचारं चरन्तीत्यर्थः। कया? तच्छायया आर्हतगतप्रतिरूपेण। तथा च पठन्ति
पण्डितैर्धष्टचारित्रैर्वठरैश्च तपोधनैः।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्॥" भव्यकुमुदचन्द्रिका-टीका/अनगारधर्मामृत २/९६ (जै.सा.इ.-प्रेमी/द्वि.सं./पृ.४८८ से उद्धृत)।
प्रतिष्ठा-यात्रादि-व्यतिकर-शुभस्वैरचरणस्फुरद्धर्मोद्धर्ष-प्रसर-रस-पूरास्त-रजसः। कथं स्युः सागाराः श्रमणगणधर्माश्रमपदं
न यत्रार्हद्गेहं दलितकलि-लीलाविलसितम्॥ २/३७॥ सागारधर्मामृत। ८९. "मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं भावाश्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य।" ता.व./प्र.सा.१/५ ।
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