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________________ ७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ४ धर्मरक्षा की प्रार्थना करके ले गये। मुनि बड़े विद्वान् थे और मंत्रवादी भी थे, इसलिये उन्होंने अपनी विद्वत्ता से तथा करामात से बादशाह के हृदय में दिगम्बरसम्प्रदाय का महत्त्व स्थापित कर दिया। कहते हैं कि उस समय बादशाह की बेगमों ने उक्त प्रभावशाली मुनि के दर्शनों की इच्छा प्रगट की और उसकी पूर्ति के लिये बादशाह ने तथा दूसरे लोगों ने मुनिराज से कुछ समय के लिये कटिभाग को वस्त्राच्छादित करने की प्रार्थना की। बादशाह के दबाव से कहिये या समय के प्रभाव से कहिये, मुनि ने वस्त्र धारण कर लिया और बेगमों ने उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझा। इसके पश्चात् मुनिराज तो वहाँ से विदा हो गये और वस्त्र त्यागकर तथा छेदोपस्थापना करके तपस्या करने लगे, परन्तु लोग इस उदाहरण को लेकर मुनियों में वस्त्र धरण करने की विधि प्रचलित करने की कोशिश करने लगे और समय ने उन्हें इस प्रयत्न में सफलता भी प्रदान की । धर्मपट्ट स्थापित होने लगे और उनमें मुनि लोग वस्त्रपरिधान करके गृहस्थों को धर्म का उपदेश देने लगे। ये ही लोग भट्टारकों के नाम से प्रसिद्ध हो गये। पहला पट्ट देहली में स्थापित हुआ और फिर जयपुर, ग्वालियर, ईडर (महीकांठा), सोजत्रा (सूरत), नागौर, मलखेड (हैदराबाद), कोल्हापुर, कारंजा, मूडबिद्री आदि अनेक स्थानों में जुदे-जुदे संघों और गच्छों के पट्ट स्थापित हो गये, जिनमें से बहुत से अब भी मौजूद हैं। "भट्टारकों की उत्पत्ति के विषय में ऊपर जिस कथा का सारांश दिया है, उसका इतना भाग तो हम ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक मान सकते हैं कि भट्टारकों का जो वर्तमान रूप है, उसकी फीरोजशाह के समय में प्रतिष्ठा हुई और वे जैनियों के अधिकारप्राप्त गुरु कहलाने लगे। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके पहिले वस्त्रधारी मुनि नहीं थे और निर्ग्रन्थमार्ग अक्षुण्ण भाव से चल रहा Jain Education International था । यहाँ प्रेमी जी के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं कि " धर्मपट्ट स्थापित होने लगे और उनमें मुनि लोग वस्त्रपरिधान करके गृहस्थों को धर्मोपदेश देने लगे। ये ही लोग भट्टारकों के नाम से प्रसिद्ध हो गए।" इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि जिन मठवासी मुनियों ने अपना मुनिवेश छोड़ दिया और एक अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग धारण कर लिया तथा अन्य मुनियों से अलग होकर या उन्हें अलग कर रिक्त अथवा नये मन्दिर या मठ में स्वयं का एकाधिकार जमा लिया और उसे धर्मपीठ का नाम देकर, गृहस्थों के धर्मगुरु बनकर, धनोपार्जन करते हुए विलासितामय जीवनयापन शुरू कर दिया, उन मुनिपद से भ्रष्ट पुरुषों ने अपने लिए अत्यन्त आदरसूचक भट्टारक उपाधि का प्रयोग किया और उनका ही सम्प्रदाय भट्टारकसम्प्रदाय कहलाया । ८६. जैनहितैषी / भाग ७ / अंक ७-८ / वैशाख - ज्येष्ठ, वीर नि. सं. २४३७ / पृ. ६०-६१ । For Personal & Private Use Only ,, ८६ ' www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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