________________
अ०८/प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /६९ पन्द्रहवीं सदी में जब भट्टारकों की स्थापना हुई थी, तब वे वस्त्र धारण करने लगे थे, बल्कि ऐसा कहना चाहिये कि मुख्यतया वस्त्रों को धारण करके ही भट्टारक हुए थे। परंतु शतपदी के लेख से ऐसा मालूम पड़ता है कि तेरहवीं शताब्दी के साधु लज्जानिवारण के लिये कभी-कभी योगपट्ट से कटिभाग को आच्छादित कर लेते थे, पर हर समय वस्त्र नहीं पहिनते थे। तेरहवीं शताब्दी में चटाई, योगपट्ट, पुस्तकपट्ट, औषधियाँ आदि थोड़ा सा परिग्रह रखते थे, परंतु पन्द्रहवीं और उसके पीछे की शताब्दियों में सैकड़ों परिग्रह रखने लगे थे। पहिले बहुत से साधुओं के संघ में रहते थे, पीछे जुदी-जुदी गद्दी स्थापित करके अकेले ही रहने लगे थे। इस तरह चारित्र की शिथिलता के क्रम का पता 'शतपदी' के समय की और भट्टारकों के समय की हालत का मिलान करने से अच्छी तरह से लगता है।"८५
- प्रेमी जी 'शतपदी' में वर्णित उपर्युक्त बातों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि विक्रम सं० १२९४ के १०-५० वर्ष पहले से मठवासी मुनि यदा-कदा योगपट्ट
और तृण-कौपीन धारण करने लगे थे और यह प्रवृत्ति विक्रम की १५ वीं शताब्दी में नियमित रूप से वस्त्र धारण करने में परिणत हो गई। यही भट्टारकसम्प्रदाय की स्थापना का प्रारंभ था। श्रुतसागर सूरि के कथन से भी इस बात की पुष्टि होती है। उन्होंने कहा है कि वि० सं० १२६४ में श्रीवसन्तकीर्ति ने मुनियों को यह उपदेश दिया था कि आहारादि के लिए जाते समय कटिभाग को चटाई आदि से ढंक लेना चाहिए और बाद में उसे अलग कर देना चाहिए। तात्पर्य यह कि उस समय मठवासी मुनि यदा-कदा ही कटिभाग को आवृत करते थे, सदा नहीं। नियमित रूप से वस्त्र-परिधान की प्रवृत्ति ने ही भट्टारकसम्प्रदाय को जन्म दिया। इसके समर्थन में प्रेमी जी ने एक अनुश्रुति या दन्तकथा भी प्रस्तुत की है। उन्होंने लिखा है
"यद्यपि किसी प्रामाणिक ग्रन्थ से इस बात का पता नहीं लगता है कि भट्टारकों की उत्पत्ति कैसे और कब हुई है, परन्तु ऐसी एक दन्तकथा है और शायद भाषा के किसी ग्रन्थ में भी उसका उल्लेख है कि बादशाह फीरोजशाह के समय में (वि० संवत् १४०७ से १४४४) भट्टारक स्थापित हुए हैं। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि बादशाह के दरबार से एक बार ऐसी आज्ञा हुई थी कि दिगम्बर जैनियों को अपने गुरु लाना चाहिये और अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाहिये, नहीं तो उनके हक में अच्छा नहीं होगा। तदनुसार कुछ दिगम्बरी जैनी कुछ दिन की मुहलत लेकर खोज में निकले और दक्षिण प्रान्त से एक प्रभावशाली मुनि को ८५. 'जैनहितैषी' भाग ७ / अंक ९ / आषाढ़, वीर नि.सं. २४३७ (ई० सन् १९१०) / पृ. १३
१९।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org