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६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ क्यों नहीं रखते हो? और जब तुम अपने को जिनकल्पी मुनियों का अनुकरण करनेवाले मानते हो, तब स्त्रियों से चरण-प्रक्षालन कराना, अर्जिकाओं के साथ एक स्थान में रहना, मंदिरों में रहना, अर्जिकाओं से भोजन बनवाना, पालकी आदि पर चढ़ना, ज्योतिष, निमित्त, चिकित्सा, मंत्रवाद, धातुवाद, अर्धकांड (?) आदि क्षुद्र विद्याओं का प्रयोग करना, सचित्त फूलपत्र, सचित्त जल से घिसा हुआ चंदन, केसर, सोना, चाँदी, घी, दूध आदि पदार्थों से पैर पुजवाना, सभाओं में व्याख्यान देना, शिष्यों को दीक्षा देना, बहुत से साधुओं में रहना, सदैव एक ही स्थान में रहना आदि अनुचित कार्य क्यों करते हो?
"शतपदी के उपर्युक्त अवतरणों से इस बात का पता लगता है कि विक्रम संवत् १२९४ में, जब कि शतपदी रची गई है, बल्कि उससे भी १०-५० वर्ष पहिले दिगम्बरसम्प्रदाय के साधु जो कि पीछे से अधिकारप्राप्त भट्टारकों के रूप में परिणत हो गये थे, प्रायः भट्टारकों सरीखा ही आचरण करते थे। वे निरंतर वस्त्र तो नहीं पहिनते थे, तथापि लज्जानिवारण करने के लिये एक रंगीन आवरण रखते थे, घास की लँगोटी भी लगाते थे, शीत से बचने के लिए कोई तैल लगवाते थे, वा पयाल आदि का आसरा लेते थे, मन्दिरों में रहते थे, अर्जिकाएँ भी वहीं रहती थीं, कभीकभी अर्जिकाओं से भोजन बनवा लेते थे, चटाई रखते थे, ज्योतिष, मंत्र, निमित्तज्ञानादि के भी प्रयोग करने लगे थे, पालकियों पर चढ़ते थे, और दवाइयाँ रखते थे। इस तरह मुनिपद के अयोग्य बहुत से काम करने लगे थे।
"हमारे बहुत से पाठक कहेंगे कि एक भिन्नसम्प्रदायी लेखक की लिखी हुई ये बातें कैसे प्रमाण मान ली जावें? क्या आश्चर्य है, जो उसने दिगम्बरसम्प्रदाय की निंदा करने के अभिप्राय से ही ये बातें लिखी हों। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य उक्त बातें लिखकर दिगम्बरसम्प्रदाय की निंदा करने का नहीं है। उसने सिर्फ इस बात को बतलाने का प्रयत्न किया है कि तुम्हारी जो वर्तमान वृत्ति है, वह तुम्हारे ही शास्त्रों के अनुकूल नहीं है, और इसकी अपेक्षा तो श्वेताम्बरवृत्ति ही अच्छी है। यह हो सकता है कि उसने इन बातों के लिखने में थोड़ा बहुत अत्युक्ति से काम लिया होगा, परंतु यह संभव नहीं है कि, जो बातें उस समय नहीं थीं, उनका उसने झूठा उल्लेख कर दिया हो। उसकी दी हुई युक्तियाँ ठीक नहीं हों, उनका खंडन हो सकता हो, वे उसने पक्षपात के वश ही लिखी हों, यह सब कुछ हो सकता है, परंतु यह नहीं हो सकता है कि सर्वथा वस्त्ररहित दिगम्बर साधुओं को वह यह कह दे कि तुम योगपट्ट वा वस्त्र रखते हो।
"वि० सं० १२९४ के लगभग की उक्त बातों से हमारा यह विचार भी पुष्ट होता है कि मुनिमार्ग में शिथिलता बराबर क्रम-क्रम से बढ़ती हुई चली आई है।
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