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________________ अ०८ / प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ६७ अयोग्य तथा बिना शोधे हुए धोती, दुपट्टा, बोरक आदि बहुत से वस्त्र भी ओढ़ लेते हैं। "३. तीर्थङ्करानुकारमिच्छतां मठे निवसनमाधाकर्मकादिभोगं तृणपटीपरिधानं पिच्छिकाकमण्डलुधारणं छद्मस्थानां धर्मदेशनां शिष्यशिक्षादीक्षादिकं सर्वमविधेयं स्यादिति। __ अनुवाद-"यदि तुम कहो कि, हम तीर्थंकर के अनुयायी हैं, वे वस्त्र नहीं रखते थे, इसलिये हम भी नहीं रखते हैं, तो फिर मठों में रहना, आधाकर्म सेवन (?) तृण की लँगोटी लगाना, मोरपिच्छि तथा कमंडलु रखना, छद्मस्थ होकर धर्म का उपदेश देना, और शिष्यों को शिक्षा-दीक्षा देना आदि कार्य तुम्हें नहीं करना चाहिये। "४. यदि च भवतां जिनकल्पानुकारः सर्वथा परिग्रहपरित्यागो वा तत्किमिति अप्रत्युपेक्षणीयम्? शैवालाविलं नलिकामात्रद्वारमहोरात्रमपि जलसन्निधिदोषेण रात्रिभोजनस्य परिग्रहव्रतस्य च दूषणकारिपित्तलताम्रलोहमयश्रृंखलाषट् वा (?) कमण्डलुः दुःप्रत्युपेक्षितापिच्छिकावस्त्रोपानहश्च परिगृह्यन्ते कथं वा? पुस्तक-पुस्तिका-कपरिका-स्थपनिकापुस्तकपटयोगपट्टकासनपट्ट-तृणपटी-खदिरवटिका-नालिकेरनानाविधौषधसन्निधयो ध्रियन्ते? अथैतावान् परिग्रहः पञ्चमकालत्वाद् ध्रियते तर्हि संयमोपष्टम्भकेन लज्जाशीतत्राणादिहेतुना वर्षासु अप्कायादि-यतनकारिणा धर्मोपकरणेन वस्त्रादिनापि किमपराद्धम्? कथं च जिनकल्पानुकारिणमात्मानं मन्यमाना अपि स्त्रीभिश्चरणप्रक्षालनादिकमार्यिकाभिः सहैकत्रवासः चैत्यनिवासः आर्यिकाभिर्भक्तसंस्कारः सुखासनादिपरिभोगः ज्योतिर्निमित्तचिकित्सामन्त्रवादधातुर्वादार्धकाण्डक्षुद्रविद्यादिप्रयोजनः सचित्तपुष्पपत्रैः पादाभ्यर्चनं सचित्तजलघृष्टचन्दनेन पादानुलेपनं कुङ्कमादिना चरणाङ्गरागः कनकरजतादिभिश्चरणपूजनं सचित्तजलेन चरणप्रक्षालनं दुग्धघृत-चिक्कसाभिश्चरणस्नानं सदसि व्याख्यानं शिष्यदीक्षणं बहुसाधुमध्ये निवसनं सदैवैकत्रावस्थान-मित्यादीनि कुर्वन्ति? अनुवाद-"यदि आप जिनकल्पी मुनियों का अनुकरण करनेवाले हैं, तो सर्वथा परिग्रह का त्याग क्यों नहीं करते हैं? पीतल, ताँबे, लोहे की साँकलवाले कमंडलु को, जो शैवाल अर्थात् काई से गन्दा रहता है, एक टोंटीवाला होता है, रात-दिन पानीयुक्त रहने से रात्रिभोजनव्रत में अतीचार लगाता है और परिग्रहत्यागवत को दूषित करता है, क्यों रखते हो? पिच्छिका क्यों लेते हो? कपड़े के जूते क्यों पहिनते हो? ग्रन्थ, पोथी, कपरिका (?), स्थपनिका (ठौणा), पुस्तकपट्ट (वेष्टन), योगपट्ट (लज्जानिवारक आवरण), चटाई, तृणकी लँगोटी, और खदिरबटी, नारियल आदि नानाप्रकार की औषधियाँ क्यों पास में रखते हो? यदि यह सब परिग्रह पंचमकाल के कारण रखते हो, तो संयम के सहायक, लज्जा तथा शीत से बचानेवाले, और वर्षा में जलकाय के जीवों की रक्षा करनेवाले वस्त्रादि धर्मोपकरणों ने तुम्हारा क्या अपराध किया है? अर्थात् कपड़ा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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